Friday, March 18, 2016

लोग अब नकली जीवन जीने लगे है

भारत खुश रहने के मामले में 118 वे स्थान पर है और एंटीबायोटिक खाने में पहले स्थान पर है।
इसके कारण को समझिये..
ये स्थिति विगत 30 वर्षों में बनी है, क्योंकि ये तीस साल का भारतीय सबसे ज़्यादा स्वार्थी है।
और ये भारत के लोग अब नकली जीवन जीने लगे है।
अब का भारत दवाइयों के सहारे जीता है, फेसबुक पर खेलता है, ट्विटर पर हँसता है, टीवी पर सोचता है और सेल्फ़ी के साथ सफाई करता है।
अब ना वो नंगे पाँव चलता है, ना बच्चे धूल में खेलते है, ना नानी कहानी सुनाती है, ना लोग नदी में नहाते है, ना ही पेड़ों की छाँव में बैठते है। मिटटी के घड़े जिस भारतीय को आउटडेटेड लगता है, वो फ्रीज़ के पानी के साथ एंटीबायोटिक भी खरीदता है। अब आँगन वाले घर की जगह मल्टीस्टोरी बनती है। आयुर्वेद अब साम्प्रदायिक हो गया और योग तो घोर धर्मान्धता...
खुश कैसे रहेंगे लोग...
जब खुशियों का पैमाना स्मार्टफ़ोन, गाड़ियां, महंगे शराब के नशे में सडकों पर हुड़दंग करने वाले युवा स्टेटस सिम्बल बन जाए। जब अनाथालय और वृद्धाश्रम की संख्या बढ़ जाए...
रेस में दौड़ कर जीतने वाले बच्चे जब ये कहने लगे की हमें आरक्षण से जिताओ। खेत में पसीने बहाने वाला किसान जब दोयम दर्ज़े का बन जाए और लोगों को बेवकूफ बनाने वाला वी आई पी बन जाए।
पश्चिम अब योग और अध्यात्म अपना रहा है और हम फैशन टीवी को आदर्श मान रहे है। क्यों ना दुखी हो हम, जब भारत के जयकारे लगाने वाले जेल जाए और टुकड़े करने वाले हीरो बन जाए।
ये लोगों का वैचारिक शीघ्रपतन और मानवीय व्यवहार के उलट जीने का प्रतिफल है।
अवसाद का निर्माण नियति नही, हमारे जीने की नीति कर रही है।
हम सच में खुश तभी रह पाएंगे, जब हम खुद को पहचानेंगे और प्रकृति के साथ समन्वय बना के आगे बढ़ेंगे।।
क्योंकि खुश रहने की कोई भी एंटीबायोटिक दुनिया की कोई भी कम्पनी नही बनाती।।

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