Thursday, November 24, 2016

आज वो बोले जिनकी खामोशियों से ही पहचान थी...


मैं कोई #अर्थशास्त्र का विशेषज्ञ नहीं हूँ, हाँ सामान्य जानकारी और कामचलाऊ अर्थशास्त्र का ज्ञान स्कूल की किताबों और अखबार के पन्नों में पढता आया हूँ।
नब्बे के दशक में #उदारीकरण#निजीकरण और #भूमंडलीकरण भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था का नवीन अंग बनी। अर्थशास्त्री #मनमोहन_सिंह ने इसकी नींव डाली और भारतीय अर्थव्यवस्था के इस नए स्वरुप के जनक के रूप में गिने जाने लगे।
बाज़ार में भी परिवर्तन आया, विदेशी कम्पनियाँ अपने आकर्षक उत्पादों के साथ भौंडी और अनाकर्षक देशी कंपनियों के उत्पादों को बड़ी तेज़ी से पीछे छोड़ने लगी। लस्सी की दुकानों में कोका कोला और भूंजा बेचने वालों को मज़बूरन अंकल चिप्स बेचना पड़ा। ग्राहक के सामने विकल्प आते गए, लेकिन इसके पीछे घरेलु और कुटीर उद्योगों की बलि होती रही। भारत एक उत्पादक देश बनने के बजाय एक उपभोक्ता बनता चला गया।
छोटे-छोटे उद्योगों मिटते चले गए, लेकिन ख़बरों में सदा विदेशी कंपनियों के आकर्षक उत्पाद और ऑफर ही दीखते रहे, जीडीपी के आंकड़ों से लोगों को विकास का माइलस्टोन दिखाया गया, 2,3,4,5.... जैसे सीढ़ीनुमा आंकड़े लोगों के मन में एक झूठ को प्रबल करता गया कि सच में देश आगे बढ़ रहा है।
हाँ उन दिनों में किसी किसान की आत्महत्या जैसी ख़बरे शायद ही सुनने को मिलती थी। काला धन का सीधा अर्थ महाजन या साहूकार का पैसा ही होता था, सबसे बड़े घोटालों में 84 करोड़ का चारा और 64 करोड़ का बोफोर्स की ही गिनती होती थी, लेकिन इस नवीन अर्थव्यवस्था के बढ़ते स्वरुप ने घोटालों और कालेधन दोनों की मात्रा बढ़ा दी। अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह देश के प्रधानमन्त्री बने, लोगों को लगा की अर्थव्यवस्था का यह डॉक्टर देश का भविष्य बदल देगा। #सोनिया_गांधी ने देशहित में पीएम का पद ठुकरा दिया, इस विदेशी बाला लेकिन देश की बहू के लिए लोगों के मन में श्रद्धा बढ़ गयी, की अब तो गांधी के सपनों का भारत बनकर ही रहेगा।
लोगों ने इसी आस में दो बार सोनिया के इस समर्पण भाव को सत्तासीन किया, वक़्त बीतता गया, लेकिन अर्थशास्त्र के बहाने देश के विकास के सपने धुन्धलाते गए, 2G, कोलगेट, कॉमनवेल्थ जैसे घोटालों की सौगात लोगों को मिलती चली गयी।
अगर नवीन अर्थव्यवस्था का कालखंड 1990 से ही माने तो इस 26 सालों के सफर में इसकी समीक्षा करना जरुरी है। देश का विकास बनाम चंद लोगों का विकास में कितनी सच्चाई है, ये जानना सबको जरुरी है। कालेधन और भ्रष्टाचार का पैमाना जितना बढ़ा है, उसके लिए कोई ठोस कदम उठाना तो जरुरी ही था, कोई भी ये कदम उठाता, वो निश्चित ही देशहित में ही होता। अगर वर्तमान सरकार ने #नोटबंदी जैसा कदम उठाया है, तो निश्चित ही भविष्य में इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। लोगों को धैर्य रखकर थोड़ा इंतज़ार तो करना पड़ेगा।
लेकिन जिनके बारे के बारे 500 और हज़ार के नोट रद्दी होने वाले है, वो तो ऐसे फैसले की खिलाफ चिल्लाएंगे ही, छाती पीट-पीट कर लोगों को दिग्भ्रमित करेंगे, मानो देश में सबकुछ रुक गया है। बिकाऊ मीडिया भी दिन-रात एड़ी चोटी कर यही साबित करने में तुली है मानो बड़े नोट के मात्र बंद होने से ही देश में सारी मौतें हो रही है।
जो पार्टी पिछले 70 सालों से आंकड़ो में लटकाकर देश की आँखों में धूल झोंकती रही, उसे आज किसान, रेहड़ीवाले, गरीब मज़दूर की चिंता खाये जा रही है। जो अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री 10 सालों में कुछ नहीं बोला, आज उसे ये फैसला "ब्लंडर" लग रहा है।
राजनीति के इस सर्कस में रंग बदलने की प्रतियोगिता की जाए, तो शायद गिरगिट कभी पास नहीं हो पाएगा। सरकारे तो आज किसी की होगी, कल किसी और की, लेकिन देश की सर्वोच्चता बहाल करने की दिशा में मिलकर सोचना चाहिए। लोगों को भी इन रंगबदलु चरित्रों से सावधान रहना चाहिए।
इतिहास का सार है, की जब जब अर्थव्यवस्था बदलती है तो समाज में भी परिवर्तन होता है। 1990 में सबने देखा। 2016 में तो केवल नोट ही बदला है और परिवर्तन साफ़ दिख रहा है।
चोट ज़ोरों की लगी है, बिना शोर किये, अब छाती पीटने की नैसर्गिक स्वतंत्रता तो उन्हें मिलनी ही चाहिए। अब अगर वे ये कह रहे है, की इस नोटबंदी से देश में 63 लोगों की मौत हुई है.... तो चलिये आप ही सही... ऐसे इस देश में हर 4 सेकेण्ड में एक बच्चा पैदा होता है और हर 6 सेकेण्ड में कोई ना कोई मरता है, ये सतत प्रक्रिया है...इसे नहीं रोक सकते..... इसके पीछे नोटबंदी ही है, कह दीजिये इसमें हर्ज़ ही क्या है।