Sunday, May 25, 2014

अच्छे दिन के लिए अच्छे सम्बन्ध भी जरुरी



16 वें आम चुनाव के बाद आयी एक पूर्ण बहुमत की सरकार से लोगों को काफी राजनैतिक व भावनात्मक अपेक्षाएं है। एक ओर जहां भाजपा की सरकार को कुछ लोग मजबूत बता रहे है, तो कुछ लोग एक मजबूत विपक्ष के अभाव में इसके निरंकुश होने की संभावना भी जता रहे है।

अपने चुनावी रैलियों में दमदार भाषणों से लोगों का ध्यान आकृष्ट करने वाले नरेंद्र मोदी अपने शपथ ग्रहण समारोह में राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों को बुलाकर पड़ोसियों से भविष्य में दोस्ताना संबंधों के संकेत दे दिए है। पाकिस्तान के साथ तल्ख संबंधों व उसके द्वारा पूर्व में किए गए विश्वासघातों की वजह से देश में सबसे ज्यादा विरोध नवाज शरीफ को भेजे गए निमंत्रण से हो रहा है। अगर एक आम आदमी की भावना से देखा जाए तो यह निमंत्रण अपने रैलियों व टीवी इंटरव्यू में पाकिस्तान को खरी-खोटी सुनाने वाले मोदी के चरित्र से विपरीत लग रहा है।

चुनाव के परिणामों से पूर्व लोगों में पाकिस्तान की मीडिया ने इस बात को जोरों से प्रसारित किया गया, कि अगर मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते है तो सरकार बनने के 6 महीनों के अन्दर भारत पाकिस्तान पर निश्चित तौर पर हमला करेगा। ऐसे खबरों से पाकिस्तान के न्यूज चैनल अपनी टीआरपी बढ़ानें में तो कामयाब रहें, लेकिन पाकिस्तान की जनता को अंधेरें में रखकर। क्या बिना सरकार के गठन और और उसके पश्चात उसके वैदेशिक नीतियों का आकलन किए हम इस मुकाम तक पहुंच सकते है। ऐसे समाचारों को ‘‘ड्रामेटाईज़’’ कर अपनी प्रसिद्धि बटोरनें वाले चैनलों से बचना चाहिए।

यह एक सत्य है कि हम अपने पड़ोसियों को नहीं बदल सकते। हमारे आपस के झगड़े हमें ही विकास की दौड़ में पीछे धकेलते है। एक लोकतांत्रिक देश हाने के नाते हमें संबंधों को सुधारने के लिए पहल करनी चाहिए। नवाज शरीफ के द्वारा निमंत्रण स्वीकारने से तो यहीं लगता है कि पाकिस्तान भी चाहता है कि हमारे संबंध बेहतर हो। पूर्व में जब हम संबंधों की बेहतरी के लिए क्रिकेट मैचों का आयोजन कर सकते है, तो बातचीत क्यों नहीं ? और एक निमंत्रण के आधार पर हम इस नतीजे पर तो नहीं पहुंच सकते कि भारत ने पाकिस्तान के समक्ष घुटने टेकने की तैयारी कर ली है। हमें अपने पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध की पहल करनी चाहिए, लेकिन हम अपनी अखंडता से कोई समझौता नहीं करेंगे ऐसी प्रतिबद्धता के साथ।

लेकिन विपक्षी व कुछ सहयोगी पार्टियां भी इस न्यौते को राजनीतिक दृष्टि से देख रहे है। अगर व्यवहारिक तौर पर देखें तो राष्ट्रमंडल देशों सबसे बड़े राष्ट्र होने के कारण सबों को साथ लेकर चलना भी भारत के भविष्य के लिए आवश्यक है। महज क्षेत्रीय राजनीति लाभ के उद्येश्य से विरोध करना तर्कसंगत नहीं है। हम एक नए युग की शुरूआत कर रहे है और इसके लिए हमें सार्थक पहल करनी चाहिए। हमें चाहिए कि चंद क्षेत्रीय वोट बैंक की लालच को दरकिनार कर देश के भविष्य के बारें में सोंचे।

Wednesday, May 21, 2014

मुझे गंगा ने बुलाया है

अपनी घाटों के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध वाराणसी भारत के 16 वें आमचुनाव में राजनीति का केंद्र बिंदु रहा। चुनावी मुकाबलों के अलावे यहां से विजयी उम्मीदवार सह भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘‘मुझे गंगा ने बुलाया है’’ जैसे विज्ञापनों के संवाद से मतदाताओं को आकृष्ट करने में सफलता पायी। चुनाव खत्म हो गया और चुनावी समर का केंद्र बिन्दु रहा यह पौराणिक शहर भी अखबार के पहले पन्ने से खिसकते हुए भीतर के पृष्ठों में पुनः अपनी जगह तलाषने लगा।
चुनावों के दौरान भले ही संबों ने गंगा में डुबकी लगायी, गंगा की आरती की और गंगा के मैलेपन को दूर करने की कसमें खायी। लेकिन क्या इस मातृवत गंगा की दुर्दशा के प्रति कोई राजनीतिक संभावना नजर आती है? चुनाव में अपने ही प्रदेश में में मुंह की खायी, समाजवादी पार्टी के नेता व राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने नरेंद्र मोदी के गंगा की सफाई के वादों पर प्रश्न चिंह लगाते हुए कहा कि देखते है कि आने वाले पांच सालों में वे गंगा कि किस कदर सफाई कर पाते है। उक्त बयानों का अगर राजनीतिक अर्थ न भी निकाला जाए, तो इसमें एक राज्य सरकार के द्वारा भविष्य में असहयोग की संभावना झलकती है।
गंगा के मैलपन को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर अपनी चुनावी नैया पार करने वाले ये राजनेताओं से क्या एक स्वच्छ व शुद्ध गंगा की उम्मीद की जा सकती है? क्या हम नवनिर्वाचित सरकार से ये आशा कर सकते है, कि वे औद्योगिक कचरों को डंप करने की परंपरागत नदियों के स्थान पर कोई वैकल्पिक व स्थायी हल निकालेगी? भाजपा की घोषणापत्र में नदियों को जोड़ने की बातें हमेशा से ही कही जाती रही है। कुछेक भाजपा शासित राज्यों में इस दिशा में प्रयास भी किए है। लेकिन सहायक नदियों के इत्तर गंगा एक नदी मात्र नही है। यह करोड़ो किसानों की जीवनरेखा है, जो उत्तर से पूर्वी भारत तक के लोगों को एक सूत्र में पिरो कर रखती है। इसके निर्मलता को पुर्नस्थापित करने के लिए किसी और ‘‘प्लान’’ की नहीं मजबूत संकल्प व सबके सहयोग की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की सीढि़यों को नमन कर माँ के रूप में देश की सेवा का संकल्प दुहराया है। वाराणसी से प्रधानमंत्री का होना गंगा के निर्मलीकरण की संभावना को निश्चय ही बल प्रदान करता है। लेकिन ये तबतक संभव नहीं होगा, जबतक कि विभिन्न राज्यों से होकर गुजरने वाली गंगा को राजनीतिक नफे-नुकसान से दूर रखकर एक सहयोग की भावना से काम न किया जाए।