Monday, June 9, 2014

‘‘पर्यावरण दिवस’’ साल में एक ही बार क्यो होता है?



साल भर पहले बड़े ही सजगता का परिचय देते हुए हमने पाॅलीथीन का प्रयोग न करने का संकल्प लिया। बड़े-बड़े पोस्टरों और होर्डिंग्स पर करोड़ो खर्च किए गए। पर एक साल के बाद हम वहीं पुराने ढर्रें पर लौट आए। न लोग बदले न उनकी आदतें। पर्यावरण बचाने को लेकर बड़े बड़े सेमिनार और लेक्चर्स होते रहे, लेकिन फिर वहीं ढाक के तीन पात।
40 डिग्री के तापमान में तपती राँची के एक एयर कंडीशन हाॅल में 5 जून को राजधानी में झारखंड राज्य प्रदूषण बोर्ड के द्वारा पर्यावरण दिवस मनाया गया। जिसमें पर्यावरणविद समेत कई जानकारों ने आनेवाले दिनों में पर्यावरण के संबंध में लोगों को आगाह किया। जानकारों ने बड़ी ही बौद्धिक भाषणों का प्रयोग कर वाहवाही भी बटोरी। काफी कुछ जानने को भी मिला, लेकिन आधे से अधिक श्रोता एसी की ठंढी हवाओं में सोकर ही पर्यावरण दिवस मनाने की औपचारिकता का निवर्हन कर दिया।
संगोष्ठी के मध्य में उत्तम भोजन का प्रबंध देखकर एक श्रोता ने कहा कि ‘‘पर्यावरण दिवस’’ साल में एक ही बार क्यो होता है? समाचार संकलन के दौरान एक पत्रकार के जीवन में ऐसे संवाद होते रहते है। लेकिन प्रश्न है कि क्या हम पर्यावरण संरक्षण के नाम पर ऐसे आयोजन मात्र कर किसे संरक्षित करना चाह रहे है। मौसम वैज्ञानिक से लेकर काॅरपोरेट घरानों के लोगों ने पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता को बाहर के तापमान से 20 डिग्री कम के हाॅल में बड़ी ही भावनात्मक रूप से श्रोताओं के सामने रखी। एक पल मुझे भी लगा कि शायद अब पर्यावरण के प्रति लोगों के सोच में परिवर्तन की हवा बहेगी। लेकिन ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला।
क्या हम केवल एक दिन विशेष को ही ऐसे आयोजन करके अपने कर्तव्यों को दर्शाने का प्रयास करते है, या एक साधारण आदमी से लेकर काॅरपोरेट घराना सचमुच बिगड़ते पर्यावरण के प्रति गंभीर है? क्या हमने इस दिशा में काम करने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तत लाया है? पाॅलिथीन का प्रयोग न करने के जागरूकता और संकल्पों को हमने किस कदर दरकिनार किया है, ये राजधानी में रहने वालों को बेहतर पता है। बात केवल अपने राज्य की ही नहीं, अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। हम हर बार ऐसे दिवसों का आयोजन कर नए नए वादें और संकल्प दुहराते है और कुछ समय बाद सब कुछ भूल कर वापस अपने पुराने ढर्रें पर लौट जाते है।
दरअसल हमारे देश में केवल नियमों में बदलाव होते है, कभी भी लोगों की मानसिकता में बदलाव की कोशिश नहीं होती। पर्यावरण लोगों के जीवन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है, लेकिन हम ये मान लेते है कि प्रदूषण पर नियंत्रण केवल सरकार का काम है। हमारी सरकारें भी केवल ‘‘बैन’’ लगाने का काम करती है, जिससे सीधा लाभ व्यापारियों और बिचैलियों को होता है। प्रतिबंधित वस्तुओं का कोई विकल्प न होने के कारण इसकी कीमते बढ़ती है और कालाबाजारी बढ़ती है। हमारा पर्यावरण स्वच्छ व प्रदूषण मुक्त हो, इसके लिए हमें संयुक्त रूप से कर्तव्य बोध की भावना का विकास करना होगा। हमें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। शुरूआत हमें छोटी-छोटी आदतों में परिवर्तन करके करना होगा। हमें नयी पीढ़ी को प्रकृति व उर्जा के संचय के महत्व को बताना होगा। लेकिन हमारे देश की विडंबना है कि हम निचले स्तर में कोई सुधार किए बिना सीधे उपरी स्तर में परिवर्तन चाहते है।
हमें याद रखना चाहिए कि पर्यावरण की विकृति किसी एक दिन की परिणति नहीं है, अतः सबकुछ सामान्य हो जाए यह भी एक दिन में संभव नहीं है। बढ़ते मशीनों और आधुनिक सुविधा यंत्रों का प्रयोग हम निरंतर पर्यावरण की कीमत चुकाकर कर रहे है, इसे रोकना होगा। हमें तय करना होगा कि हमारे आंगन को छाया प्रदान करने वाला एक पेड़ हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण है।
झारखंड स्वयं में प्राकृतिक संपदाओं और वनों से समृद्ध प्रदेश है, लेकिन बढ़ते शहरीकरण ने यहां के प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित किया है। जिसका सीधा प्रमाण विगत 10 वर्षों के मौसम में बदलाव के रूप में दीखता है। हम अब देश के औसत वन प्रतिशत से नीचे आ चुके है। क्या प्रकृति द्वारा प्रदत्त वन और पहाड़ हमारे लिए सड़क और फर्नीचर बनाने के लिए एक कच्चा माल के स्रोत मात्र है? या फिर हमारी जीवन रेखा? आइए इस दिशा में चर्चाओं के अलावे कोई सार्थक पहल करने का संकल्प लें। अपने दैनिक दिनचर्या में छोटी-छोटी बदलाव के माध्यम से पर्यावरण के संरक्षण में अपना योगदान सुनिश्चित करें। पाॅलिथीन का न्यूनतम प्रयोग करें, उर्जा का अधिकतम संरक्षण करें और कम से कम अपने आंगन में एक पेड़ तो अवश्य लगाएं।

Sunday, May 25, 2014

अच्छे दिन के लिए अच्छे सम्बन्ध भी जरुरी



16 वें आम चुनाव के बाद आयी एक पूर्ण बहुमत की सरकार से लोगों को काफी राजनैतिक व भावनात्मक अपेक्षाएं है। एक ओर जहां भाजपा की सरकार को कुछ लोग मजबूत बता रहे है, तो कुछ लोग एक मजबूत विपक्ष के अभाव में इसके निरंकुश होने की संभावना भी जता रहे है।

अपने चुनावी रैलियों में दमदार भाषणों से लोगों का ध्यान आकृष्ट करने वाले नरेंद्र मोदी अपने शपथ ग्रहण समारोह में राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों को बुलाकर पड़ोसियों से भविष्य में दोस्ताना संबंधों के संकेत दे दिए है। पाकिस्तान के साथ तल्ख संबंधों व उसके द्वारा पूर्व में किए गए विश्वासघातों की वजह से देश में सबसे ज्यादा विरोध नवाज शरीफ को भेजे गए निमंत्रण से हो रहा है। अगर एक आम आदमी की भावना से देखा जाए तो यह निमंत्रण अपने रैलियों व टीवी इंटरव्यू में पाकिस्तान को खरी-खोटी सुनाने वाले मोदी के चरित्र से विपरीत लग रहा है।

चुनाव के परिणामों से पूर्व लोगों में पाकिस्तान की मीडिया ने इस बात को जोरों से प्रसारित किया गया, कि अगर मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते है तो सरकार बनने के 6 महीनों के अन्दर भारत पाकिस्तान पर निश्चित तौर पर हमला करेगा। ऐसे खबरों से पाकिस्तान के न्यूज चैनल अपनी टीआरपी बढ़ानें में तो कामयाब रहें, लेकिन पाकिस्तान की जनता को अंधेरें में रखकर। क्या बिना सरकार के गठन और और उसके पश्चात उसके वैदेशिक नीतियों का आकलन किए हम इस मुकाम तक पहुंच सकते है। ऐसे समाचारों को ‘‘ड्रामेटाईज़’’ कर अपनी प्रसिद्धि बटोरनें वाले चैनलों से बचना चाहिए।

यह एक सत्य है कि हम अपने पड़ोसियों को नहीं बदल सकते। हमारे आपस के झगड़े हमें ही विकास की दौड़ में पीछे धकेलते है। एक लोकतांत्रिक देश हाने के नाते हमें संबंधों को सुधारने के लिए पहल करनी चाहिए। नवाज शरीफ के द्वारा निमंत्रण स्वीकारने से तो यहीं लगता है कि पाकिस्तान भी चाहता है कि हमारे संबंध बेहतर हो। पूर्व में जब हम संबंधों की बेहतरी के लिए क्रिकेट मैचों का आयोजन कर सकते है, तो बातचीत क्यों नहीं ? और एक निमंत्रण के आधार पर हम इस नतीजे पर तो नहीं पहुंच सकते कि भारत ने पाकिस्तान के समक्ष घुटने टेकने की तैयारी कर ली है। हमें अपने पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध की पहल करनी चाहिए, लेकिन हम अपनी अखंडता से कोई समझौता नहीं करेंगे ऐसी प्रतिबद्धता के साथ।

लेकिन विपक्षी व कुछ सहयोगी पार्टियां भी इस न्यौते को राजनीतिक दृष्टि से देख रहे है। अगर व्यवहारिक तौर पर देखें तो राष्ट्रमंडल देशों सबसे बड़े राष्ट्र होने के कारण सबों को साथ लेकर चलना भी भारत के भविष्य के लिए आवश्यक है। महज क्षेत्रीय राजनीति लाभ के उद्येश्य से विरोध करना तर्कसंगत नहीं है। हम एक नए युग की शुरूआत कर रहे है और इसके लिए हमें सार्थक पहल करनी चाहिए। हमें चाहिए कि चंद क्षेत्रीय वोट बैंक की लालच को दरकिनार कर देश के भविष्य के बारें में सोंचे।

Wednesday, May 21, 2014

मुझे गंगा ने बुलाया है

अपनी घाटों के कारण पूरे विश्व में प्रसिद्ध वाराणसी भारत के 16 वें आमचुनाव में राजनीति का केंद्र बिंदु रहा। चुनावी मुकाबलों के अलावे यहां से विजयी उम्मीदवार सह भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘‘मुझे गंगा ने बुलाया है’’ जैसे विज्ञापनों के संवाद से मतदाताओं को आकृष्ट करने में सफलता पायी। चुनाव खत्म हो गया और चुनावी समर का केंद्र बिन्दु रहा यह पौराणिक शहर भी अखबार के पहले पन्ने से खिसकते हुए भीतर के पृष्ठों में पुनः अपनी जगह तलाषने लगा।
चुनावों के दौरान भले ही संबों ने गंगा में डुबकी लगायी, गंगा की आरती की और गंगा के मैलेपन को दूर करने की कसमें खायी। लेकिन क्या इस मातृवत गंगा की दुर्दशा के प्रति कोई राजनीतिक संभावना नजर आती है? चुनाव में अपने ही प्रदेश में में मुंह की खायी, समाजवादी पार्टी के नेता व राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने नरेंद्र मोदी के गंगा की सफाई के वादों पर प्रश्न चिंह लगाते हुए कहा कि देखते है कि आने वाले पांच सालों में वे गंगा कि किस कदर सफाई कर पाते है। उक्त बयानों का अगर राजनीतिक अर्थ न भी निकाला जाए, तो इसमें एक राज्य सरकार के द्वारा भविष्य में असहयोग की संभावना झलकती है।
गंगा के मैलपन को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर अपनी चुनावी नैया पार करने वाले ये राजनेताओं से क्या एक स्वच्छ व शुद्ध गंगा की उम्मीद की जा सकती है? क्या हम नवनिर्वाचित सरकार से ये आशा कर सकते है, कि वे औद्योगिक कचरों को डंप करने की परंपरागत नदियों के स्थान पर कोई वैकल्पिक व स्थायी हल निकालेगी? भाजपा की घोषणापत्र में नदियों को जोड़ने की बातें हमेशा से ही कही जाती रही है। कुछेक भाजपा शासित राज्यों में इस दिशा में प्रयास भी किए है। लेकिन सहायक नदियों के इत्तर गंगा एक नदी मात्र नही है। यह करोड़ो किसानों की जीवनरेखा है, जो उत्तर से पूर्वी भारत तक के लोगों को एक सूत्र में पिरो कर रखती है। इसके निर्मलता को पुर्नस्थापित करने के लिए किसी और ‘‘प्लान’’ की नहीं मजबूत संकल्प व सबके सहयोग की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की सीढि़यों को नमन कर माँ के रूप में देश की सेवा का संकल्प दुहराया है। वाराणसी से प्रधानमंत्री का होना गंगा के निर्मलीकरण की संभावना को निश्चय ही बल प्रदान करता है। लेकिन ये तबतक संभव नहीं होगा, जबतक कि विभिन्न राज्यों से होकर गुजरने वाली गंगा को राजनीतिक नफे-नुकसान से दूर रखकर एक सहयोग की भावना से काम न किया जाए।

Saturday, March 15, 2014

चुनावी मौसम में मीडिया की भूमिका



देश के चुनावी मौसम में मीडिया की भूमिका पर जोरदार बहस हो रही है। दिल्ली के 49 दिनों के पूर्व मुख्यमंत्री के द्वारा मीडिया के लोगों को जेल भेजने व पक्षपात करने के आरोपों को टीवी चैनलों ने प्रमुखता से प्रसारित किया।  टीम केजरीवाल की पहचान दिल्ली से पूरे देश तक फैलाने वाली, मीडिया की भूमिका चुनावी समर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इसके पूर्व भी मीडिया पर ऐसे आरोप लगते रहे है और कुछ ऐसे संबंध भी सामने आते रहे है जो किसी न किसी राजनीतिक दलों को फायदा पहुँचाते हो। टीम केजरीवाल में भी आषुतोष, मनीष सिसौदिया, शाजिया इल्मी और आषीष खेतान जैसे वरिष्ठ पत्रकार है, अब ये तो स्पष्ट है कि इन पत्रकारों का आप के प्रति प्रेम एकाएक नहीं जागा होगा। अपने पत्रकारिता जीवन में इन्होंने कितनी निष्पक्षता बरती होगी यह तो इनके वर्तमान रवैये से स्पष्ट हैं।


देश को एक स्वच्छ राजनीति देने के वायदे अब गर्त में चली गई। आम आदमी पार्टी, लोगों की भावनाएं और सपनों को आधार बना कर राजनीतिक सुख भोगते हुए खुद भी उसी राजनीति का हिस्सा बन गयी, जिसके विरोध में आप का जन्म हुआ था। व्यवस्था परिवर्तन के नारे अब सत्ता परिवर्तन में तब्दील हो चुके है।
लोकतंत्र का महापर्व देश के लिए हमेशा महत्वपूर्ण होता है। जनता की अपेक्षाएं हमेशा उनके जीवनस्तर में सुधार की होती है। इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि कौन सरकार बनाएगा, महत्वपूर्ण यह है कि जो भी सरकार में आए वो सरकार कैसे चलाएगा? अब अगर मीडिया के सर्वेक्षणों में कांग्रेस की पराजय दिख रही है और भाजपा कि सरकार बनती दिख रही है, तो इसका कतई अर्थ नहीं कि मीडिया भाजपा के समर्थन में आ गयी है। यह एक प्रत्याशित घटना मात्र है। जो सरकार के कार्यकाल और कार्यशैली के प्रति लोगों की प्रतिपुष्टि को दर्शाता है।
मीडिया की कार्यशैली पर सवाल उठाकर मीडिया का ध्यान खींचने वाले टीम केजरीवाल अगर वहीं पुराने मुद्दों को आधार बनाकर लोगों के बीच जाते तो मीडिया समेत सामान्य लोगों का भी दिल जीतने में सफल हो पाते। अनर्गल प्रलाप और आरोपों के स्थान पर देश में मुद्दों के आधार पर राजनीति हो तो सच में आम आदमी और देश का कुछ भला होगा, वरना वहीं ढाक के तीन पात।