Wednesday, March 20, 2013

भारतीय व पश्चिमी संस्कृति में अंतर एवं समानताएं


भारत सैद्धांतिक और वास्तविक रूप में एक बहुल समाज है। भारत के लोगों को इसकी एकता और विभिन्नता द्वारा समझना उचित होगा। विदेशी आक्रमणों, मुगल और ब्रिटिश शासन के उपरान्त भी भारत में संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं का सम्मिश्रण और विभिन्न जातियों के बीच एकता और समरूपता बनी रही। यद्यपि तीक्ष्ण आर्थिक और सामाजिक असमानताओं ने सम सामाजिक संबंधों के प्रादुर्भाव में बाधा उत्पन्न की, फिर भी राष्ट्रीय एकता और अखंडता अक्षुण बनी रही। इसी सम्मिश्रणता के द्वारा भारत एक अद्वितीय मिश्रित समाज बना हुआ है। वास्तव में भारत एक अनुठा दृश्यपटल है जिसका समानान्तर स्वरूप अन्य महाद्वीपों में दृष्टिगत नही होता, विदेशी आक्रमण संसार के अन्य भागों से आप्रवासन, विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और धर्मों के अस्तित्व के कारण भारतीय संस्कृति न केवल सहिष्णु ही है, बल्कि अपनी विशिष्टता और ऐतिहासिकता को संजोए हुए एक अनूठी निरन्तर और जीवंत संस्कृति भी है।
    भारतीय सांस्कृतिक परम्परा अद्वितीय है, धर्म, कर्म और जाति व्यवस्था के सोपानीय रूप में भारतीय संस्कृति की मुख्य धारणाएं है। इन तत्वों के संरूपण और मतैक्य के कारण भारतीय समाज में संतुलन और स्थायित्व सुदृढ़ हुए। भारतीय समाज की विशिष्टता केवल इसकी गूढ़ प्रवृति से ही नही है, इसका सही अर्थ समझने के लिए इसकी ऐतिहासिकता और संदर्भता का सूक्ष्म विश्लेषण करना पड़ेगा। यहां सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रवृŸिायां आत्मसात और सात्मीकरण की प्रक्रियाओं द्वारा दिखाई पड़ती है।
    आर्य और द्रविड़ एक साथ रहे, हिन्दू और मुसलमान सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं को साझा करते रहे है। समयोपरांत ईसाई भी हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ रहे। आज हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई और जैन के साथ कई मान्यताओं को मानने वाले एक सामान्य विरासत के संवाहक है। भौगोलिक विविधताओं के कारण संस्कृति व परंपराओं में थोड़ी बहुत अंतर देखने को मिलता है, लेकिन भारतीयों की प्रकृति के साथ समन्वय बना कर चलने की परंपरा सभी में सामान्य रूप से विद्यमान है।
    वेदों और उपनिषदों के तत्व ज्ञान ने जहां लोगों को जीवन के मर्म को समझाया वहीं आयुर्वेद एवं सांख्यिकी के ज्ञान ने आधुनिकता की नींव रखी। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के दर्शन को लोगों ने जीवन का आधार बनाया एवं न्यूनतम भौतिक आवश्यकताओं में सुखी जीवनयापन के मार्ग को समाहित किया। प्राकृतिक तरीकों से प्रकृति के साथ संतुलन और अंततः ज्ञान की तलाश में सन्यास धारण करना संपूर्ण विश्व को भारतीयों ने ही सिखाया।  नगरीकरण के द्वितीय चरण (ईसा पूर्व 6ठी शताब्दी) में भौतिकवादी संस्कृति व संसाधनों के प्रभुत्व की होड़ में जब एक उहापोह की स्थिति बनी हुई थी, तब गौतम बुद्ध के अहिंसा के मार्ग ने लोगों को एक नयी दिशा प्रदान की, जो आज विश्व के बहुसंख्य को एक उद्येश्यपरक जीने की राह दिखला रहा है।
    एक जीवंत सभ्यता के कई चरणों के फलस्वरूप आज भी भारतीय अपनी परंपराओं व संस्कृति को संजोए हुए है, आधुनिकता के चकाचैंध व भौतिकवादी संस्कृति के मध्य भी भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप सुरक्षित है। परंपराएं जहां संस्थागत रूप ले चुकी है और संस्कृति को रूढि़वादी संज्ञा से दर्शाया जाता है, उसी समाज में ऐसे पारंपरिक शब्दावलियों अपने वैज्ञानिक आधार के सहारे समाज में अपनी जीवंतता बनाए हुए है।
    आधुनिक विश्व में परंपरावादी और गैर परंपरावादी राष्ट्र का विभाजन स्पष्ट तौर से दीख पड़ता है, विकसित और विकासशील राष्ट्रों का ध्रुवीकरण पूर्वी व पश्चिमी देशों के भौगोलिक संरचना पर आधारित है। भारत की परंपरावादी संस्कृति व पश्चिम की आधुनिकतावादी सोच के मूल ही में अंतर है, भारतीय दर्शन जहां गैर भौतिकवाद का समर्थक है वहीं पश्चिमी दर्शन पूर्णतः भौतिकवाद के आधार पर खड़ा है। भारतीय दर्शन संपूर्ण विश्व को एक परिवार की तरह और इसके सदस्यों को अपने बंधु-बांधव के समान समझता है, वहीं पश्चिमी संस्कृति पूरे विश्व को एक बाज़ार और यहां रहने वालों को खरीदार की नज़रों से देखता है, इस बाज़ार में उसी का अस्तित्व संभव है, जो खरीदने की क्षमता रखता है, जो भौतिक वस्तुओं को खरीदने में अक्षम है वो पश्चिम के दर्शन में फिट नही बैठता।
    आधुनिक विज्ञान के सहारे पश्चिम ने प्रकृति के नियमों को चुनौती दी है, अपनी जिजीविषा को अपने शोधों व अध्ययन से शांत किया है, आकाश में टिमटिमाने वाले चाँद, तारों की भी दूरियां नाप ली है। जीवन को आलीशान बनाने के लिए अनगिनत अविष्कारों से वैश्विक ढ़ांचे को ही बदल कर रख दिया है। तीव्रतम गति से लेकर सूक्ष्मतम विश्लेषण बगैर पश्चिमी विज्ञान के कल्पना नही की जा सकती है। संस्कृति का यह नवरूप सबसे आकर्षक है जिसके आकर्षण से लगभग सम्पूर्ण विश्व प्रभावित है, समाजशास्त्रीय परिभाषा के अर्थों में देखे तो ‘परसंस्कृतिग्रहण’ की यह परंपरा अन्य संस्कृतियों को तेजी से विस्थापित कर रही है।
    फास्टफूड और उन्मादपूर्ण जीवन के “कंपोजिट कल्चर” ने भारतीय संस्कृति को भी प्रभावित किया है, भौतिकवाद के आकर्षण में प्रकृति के साथ संतुलन असंतुलित होती जा रही है। विलासी जीवन के अंतहीन होड़ ने मनुष्य के जीवन को यौनोन्माद और भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति तक ही संकुचित कर दिया है। वर्तमान में जीने की संस्कृति में हम अपने आने वाले कल की चिंता नही कर रहे है। अधिकाधिक पैसे की चाहत और पैसे से दुनिया की हर भौतिक सुख सुविधा खरीदने की जि़द हमें न केवल एक मिथ्या भ्रम में धकेल रहा है, बल्कि एक विनाशकारी भविष्या को भी आमंत्रण दे रहा है।
    चूँकि संस्कृति का मूल तत्व ही है कि वह परंपरा में शामिल हो जाए और सर्वग्राह्य हो जाए, और आज के भौतिकवादी संस्कृति में पश्चिम का यह दर्शन तेजी से फैल रहा है। लोगों की मनोवृति विलासी जीवन के प्रति तेजी से आकर्षित होती है अतः स्वाभाविक है कि सादे जीवन की तुलना में आलीशान जीवन का आकर्षण भी तेजी से फैलेगा।
    भारतीय सांस्कृतिक विरासत के पीछे की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और पश्चिम के देशों के सांस्कृतिक मूल्यों के पीछे स्पष्ट विभाजन है कि एक परलौकिक सुख और मोक्ष को अंततः जीवन का उद्येश्य मानता है तो दूसरा धरती में ही सुखी रहने के हरसंभव भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को एकमेव लक्ष्य मानता है। पश्चिम जहां संसार के गतिमान होने के पीछे के कारणों को परलौकिक न मानकर एक वैज्ञानिकीय घटना बताता है तो वहीं भारतीय मान्यताएं इसके पीछे किसी सर्वशक्तिमान की शक्ति को महत्व देता है। भौगोलिक संरचना भी एक दूसरे के सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते है, भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण देश और समशीतोष्ण जलवायु में जीने के लिए पश्चिमी देशों की तुलना में संघर्ष कम है, जबकि शुष्क वातावरण में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत व्यक्ति में प्रकृति से लड़ने की प्रवृति का विकास कही तेजी से होता है, और उनकी यही प्रवृति उनके परंपराओं में समाहित होकर अंततः उनके संस्कृति का हिस्सा बनते चले गए।
    भूमंडलीकरण के दौर में जहां भौगोलिक दूरियां मिटती जा रही है, वहीं व्यापार व संचार माध्यमों के विकास से एक दूसरे की संस्कृति को तेजी से अपना भी रहे है, पश्चिम के जींस-पैंट के पहनावे को जिस तेजी से भारतीयों ने स्वीकार किया है शायद ही किसी आन्य देश की जनता ने किया हो। भागदौड़ के जीवन में पश्चिमी पहनावे भारतीय संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन चुका है। भारतीय पारंपरिक खान-पान व शाकाहारी भोजन की महत्ता को अब पश्चिमी विज्ञान भी स्वीकार कर रहा है और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सबसे उपयुक्त भी बता रहा है, भारतीय भोजन आज पश्चिम में सबसे प्रसिद्ध भोजनों में गिनी जा रही है। अब यह तय कर पाना मुश्किल है कि योग कहाँ की संस्कृति का हिस्सा है, योग की बढ़ती महत्ता ने इस भारतीय संस्कृति को एक साझी संस्कृति में बदल कर रख दिया है। भौतिकवाद के चरम बिंदु पर पहूँच कर अब पश्चिमी चिंतक भी आध्यात्म के माध्यम से मन की शांति तलाश रहे है। वहीं भारतीय युवा पश्चिम के भोगवादी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे है, खुले समाज की सोच और स्वकेंद्रीत जीवन की कल्पना पश्चिम के सांस्कृतिक मूल्यों से उधार स्वरूप लिए गए है।
     समाज के आपसी संसर्ग से संस्कृतियों का हमेशा आदान प्रदान होता रहा है, अन्र्तग्रहण की यह प्रक्रिया समाज की जीवंतता का मुख्य लक्षण है, भौगोलिक दूरियां जितनी तेजी से कम होगी यह प्रक्रिया उतने ही तेजी से होगी। विश्व के संपूर्ण भागों के लिए किसी एक सामन्य संस्कृति की कल्पना तो निश्चयतः अव्यवहारिक है, लेकिन आधुनिक विज्ञान के तीव्र विकास ने विविध संस्कृतियों के मध्य के अंतर को काफी हद तक सामान्य बना दिया है, यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नही होगी।
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Friday, March 8, 2013

दिल से निकलेगी न मर कर वतन की उल्फ़त..

दिल से निकलेगी न मर कर वतन की उल्फ़त...
मेरी मिट्टी से भी खुषबु-ए-वतन आएगी.........
फांसी के तख्तें पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए यह गाते नौजवानों ने अपने जीने के उद्येष्य को परिभाषित कर दिया, अंग्रेजी सरकार इन क्रांतिकारियों के जीने के अधिकार को भले ही छीन लिया हो लेकिन उनके राजनीतिक दर्षन और विचारों को देष के कोने कोने तक फैलने से नही रोक सकी।
महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्ररित होकर असहयोग आंदोलन में अपनी पढ़ाई-लिखाई और अपने घर-बार तक छोड़ कर आने वाले युवाओं ने कभी ये नही सोचा था कि उनके आदर्ष के द्वारा आंदोलन वापस ले लिया जाएगा, इस घटनाक्रम ने इन उत्साही युवकों का अहिंसक आंदोलन के प्रति निष्ठा को तोड़ दिया, अहिंसक आन्दोलनों से ऐसे युवाओं का विष्वास उठने लगा और किसी विकल्प की की तलाष होने लगी।
उहापोह की इस स्थिति में षचीन्द्रनााथ सान्याल की ‘बंदी जीवन’ इन युवाओं के लिए एक पाठ्य पुस्तक के रूप में सामने आयी और अपने ओजपूर्ण आह्वान से सैकड़ो ऐसे युवाओं को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। कांतिकारी दर्षन से प्रभावित युवाओं ने कानपुर के एक सम्मेलन में हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएषन( एच आर ए ) की स्थापना की और अंग्रेजों के विरूद्ध एक घोषित यु़द्ध छेड़ दिया। का्रंतिकारी आन्दोलन के प्रांरंभिक चरण के प्रमुख सैनिकों में भगत सिंह, अषफाकउलाह, रामप्रसाद बिस्मिल एवं राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे युवा षामिल थे, जिनका एकमेव उद्येष्य का्रंतिकारी आन्दोलनों की निरंतरता के लिए हरसंभव तरीके से प्रयास करना था। का्रंतिकारी युवा व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राजनीति के बदले संगठित का्रंतिकारी कार्रवाई में विष्वास करते थे, लेकिन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीषन के खिलाफ प्रदर्षन के दौरान लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठीचार्ज और उसके बाद उनकी मौत ने युवा क्रांतिकारियों को एक बार फिर व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राह पकड़ने पर मजबूर कर दिया। युवा क्रांतिकारियों ने ‘षेर-ए-पंजाब’ के नाम से मषहूर इस महान नेता की हत्या को अपने पौरूष के लिए चुनौती समझा और उसे स्वीकार किया। 17 सितम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रषेखर आज़ाद और राजगुरू ने लाहौर में लालाा जी पर लाठी बरसाने वाले एक पुलिस अधिकारी साॅन्डर्स की हत्या कर दी। हत्या के बाद एच एस आर ए की तरफ से पोस्टर लगाए गए जिसमें लिखा था: ‘ लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देष का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कर्तव्य था, साॅन्डर्स की हत्या पर हमें दुख है पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे है।’
अपनी क्रांतिकारी रणनीतियों में भगत सिंह और उनके साथियों ने जनता को यह समझाने का निणर्य किया कि वे उनके अन्य लड़ाईयों में भी साथ है, और उनकी लड़ाई व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप में लड़ी जाए, सरकार इस समय जनता विषेषकर मज़दूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के मकसद से दो विधेयक ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी, इसके प्रति विरोध जताने के लिए भगत सिंह और बटुकेष्वर दत्त को सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंकने का काम सौंपा गया। बम फेंकने का उद्येष्य किसी को नुकसान पहुंचाना नही बल्कि सत्ता के बहरे कानों में विरोध की आवाज पहुंचाना था। सदन में पर्चे फेंके गए जिसमें लिखा था ‘ बहरे कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए ’
भगत सिंह और बी के दत्त पर मुकदमा चला, बाद में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू एवं अन्य क्रांतिकारियों पर अनेक षडयंत्रों में षामिल होने का मुकदमा चला। युवा क्रांतिकारी अदालत में जो बयान देते वो अगले दिन अखबारों में छपते जिससे पूरे देष में उनका प्रचार होता। अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध, निडर एवं दुस्साहसी ये युवा क्रांतिकारी रोज अदालत में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेष करते, कटघरें में बेडि़यों में जकड़े ‘ मेरा रंग दे बसन्ती चोला और सरफरोषी की तमन्ना अब हमारे दिल में है जैसे गीतों ने पूरे देष को झकझोर दिया, अहिंसक आन्दोलनों में विष्वास रखने वाले भी अब इन क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने लगे, भगत सिंह का नाम हर जुबान पे था, जेल की अमानवीय दषा में सुधार के लिए इन युवाओं का अनषन एवं 72 दिनों तक की भूख हड़ताल ने अंगे्रजी सरकार को हिला कर रख दिया, वहीं पूरे देष से इनके लिए समर्थन के स्वर उठने लगे। एक लंबे मुकदमें के बाद अन्ततः 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गयी, ये खबर ने पूरे देष को स्तब्ध कर दिया, हजारों आंखे बहुत रोई, घरों में चुल्हा नही जला, बच्चे स्कूल नही गए, दूर दराज के गांवों को भी उदासी डस गयी।
अपने जीवन के छोटे से ही अन्तराल में भगत सिंह और उनके साथियों ने देषभक्ति के जज़्बे को ऐसे दर्षाया जो उनकी षहादत के बाद हमेषा के लिए अमर हो गयी, उनकी षहादत ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिषा के साथ एक नयी उर्जा दी। गुलामी से मुक्ति के बाद आज हम एक नये भारत में जी रहे है, जहां प्रत्यक्ष रूप में कोई गोरा दुष्मन तो सामने नही है, लेकिन छिपे हुए न जाने कितने दुष्मन है? भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसे राष्ट्रविरोधी तत्व हमें समय से पीछे धकेल रहा है। देष की आजादी के सिपाहियों के सपने का भारत आज किस रूप में है यह सर्वविदित है। लेकिन क्या हम अपने सुनहरे अतीत और देषभक्तों की षहादत को यूं ही व्यर्थ जाने दे? क्या हम केवल ऐसे तिथियों को केवल एक औपचारिकता मानकर याद करे या उनके आचरण को स्वयं में समाहित कर राष्ट्र आराधन को स्पष्ट करे। भगत सिंह जैसे षहीदों को तस्वीरों और स्मारकों का रूप देकर केवल एक प्रतीकात्मक हीरो बनाने के बदले उनके दर्षन को स्वयं में धारण करे, क्योंकि देष भले ही अंग्रजी राजनीतीक दासता से मुक्त हो गया है, लेकिन सैकड़ो विघटनकारी षक्तियां देष को फिर से गर्त में ले जाने की दिषा में प्रयत्नषील है और ऐसी परिस्थितयों में देष को आज एक नही हजारों भगत सिंह की जरूरत है।