Friday, April 26, 2013

नैतिक मूल्यों का सांस्कृतिक प्रदूषण

संक्रमण के दौर से गुजर रहा हमारा समाज आधुनिकता एवं पारंपरिकता के द्वंद में फंसा सा दीख रहा है, एक तरफ हमारी सांस्कृतिक विरासत है तो दूसरी ओर वैचारिक स्वतंत्रता एवं समाज के खुलेपन की होड़ में नैतिकता हाशिए पर है। रिश्तों की गरिमा तार तार हो रही है, समाज में दरिंदगी ऐसी फैल रही है कि मासूम बच्चे भी समाज के इस वहशीपन से अछुते नही है।
सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ होने का दंभ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमने तत्र देवता’ का दर्शन प्रस्तुत करने वाला भारत आज नैतिकता में बड़ा कमजोर सा प्रतीत हो रहा है। कड़े कानून की मांग और प्रशासनिक दोषारोपण से ऐसी समस्याओं का समाधान हो ऐसा संभव नही है। नैतिक मूल्यों के पतन के लिए सरकार या प्रशासन प्रत्यक्ष् ा रूप से जिम्मेवार नही हो सकता, अगर 2-4 दुष्कर्मियों को फांसी के तख्ते पर लटका भी दिया जाए तो क्या ऐसी घटनाओं पर अंकुश लग जाएगा? हमारे पास कानून की एक लंबी श्रृंखला है, सैकड़ो दोषी सज़ा पाते है फिर भी ऐसी घटनाएं दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है।
बड़े शहरों से चलकर अब अर्द्धशहरी और ग्रामीण कस्बाई इलाके भी सांस्कृतिक प्रदूषण की चपेट में है। परिवार और समाज में एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ रही है। चाचा, मामा, भैया, दीदी, भाभी जैसे रिश्ते अब विलुप्त होते जा रहे है, ऐसे रिश्तों की प्रासंगिकता बतलाने वाले दादा दादी, नाना नानी भी वीडियो गेम्स और फेसबुक से रिप्लेस होते जा रहे है। यौनोन्माद के लिए एक पागलपन की मनोवृति का प्रसार हो रहा है, जो नैतिक मूल्यों को भी धराशायी कर रहा है। क्या इस पागलपन को सिर्फ कानून के बना देने से रोका जा सकता है?
दरअसल समाज में फैल रहे ऐसे मनोवृति के लिए हमारे सास्कृतिक मूल्यों से हमारी दूरियां एवं परिवार जैसी उन्नत संस्थाओं का टूटना है, मनुष्य के अन्तर्मन की शुद्धता कभी भी कानून के डंडे से ठीक नही किया जा सकता, किसी व्यक्ति के नैतिकता का ह्रास उसके  सामाजीकरण की विफलता का परिणाम है न कि प्रशासनिक विफलता का। लेकिन हां ऐसे घटनाओं के लिए ऐसी कठोर सज़ा भी अवश्य मिलनी चाहिए ताकि इसकी पुनरावृति न हो। भारत जैसे पारंपरिक देश में आधुनिकता एक नयी सोच है, आधुनिकता और उन्मुक्तता के द्वंद में हम अपने पारंपरिक मूल्यों को खोते जा रहे है। हमारे पारंपरिक आदर्श केवल सैद्धांतिक पाठ के रूप में रह गए है, जो केवल दिन विशेष को ही याद किए जाते है।
हम समाज में सेक्स शिक्षा की अनिवार्यता पर जोर देते है, लेकिन नैतिक शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप तक ही सीमित रखते है। क्या इस असंतुलन से हम एक संतुलित समाज की कल्पना कर सकते है? विविध उपायों से सुरक्षित यौन सबंधों को की वकालत करने की शिक्षा और परस्त्री के साथ यौन संबंधों को अनैतिक ठहराने वाले नैतिकता के पाठ में समाज के लिए क्या उचित है इसका निर्धारण तो हमें ही करना होगा। समाज में नैतिक मूल्यों के निर्धारण में परिवार जैसी सामाजिक संस्थाओं को सुदृढ करना होगा।


   

Thursday, April 4, 2013

आतंकवाद की रंगीन परिभाषा और लाशों का मूल्य निर्धारण

हैदराबाद में हुए बम धमाकों ने एक बार फिर से आतंकियों के मनोबल को बढ़ा दिया है। धमाकों की गूंज एक आम आदमी के दर्द से होते हुए फिर एक दफे राजनीतिक गलियारों में हुक्ममरानों के लिए 'लाषों के मूल्य निर्धारण की रस्म अदायगी बन कर रह गयी।
वर्षों तक आतंकियों के मेहमाननवाजी के बाद भी सरकार आतंकवाद की 'रंग-बिरंगी परिभाषा तक के ही निष्कर्ष पर पहुंच सकी, देष के दुष्मन को परिभाषित करने की लंबी प्रकि्रया के बीच कीड़े मकौड़े की भांति दम तोड़ता आम आदमी और हर बार की तरह बिना किसी निष्कर्ष के होने वाले 'जांच के बीच सरकार की डिमेंषिया (भूलने की बिमारी) देष के दुष्मनों के मनोबल को बढ़ाने के लिए काफी है। आतंकवाद से लड़ने का 'सैद्धांतिक संकल्प और ऐसी घटनाओं के बाद मुवावजे की रस्म अदायगी से हमारी पहचान एक  ऐसे 'साफट नेषन के रूप में होती जा रही है जो इतना सहनषील है जो कभी पलट के वार नही करता।
धमाकों की लंबी श्रृंखला के बाद हर बार टीवी स्टूडियों में पुरानी गलतियों की समीक्षा और लंबी बहस के अलावे कुछ भी नही होता, मंत्री जी राज्य सरकार को  दोषी ठहराते है तो राज्य केंद्र को, इस रस्साकषी में बजट में हर साल सुरक्षा के नाम पर फंड बढ़ता जाता है फिर भी हम चौक चौराहों में एक सीसीटीवी कैमरे तक को भी दुरूस्त नही कर पाते। देष में हार्इ अलर्ट की घोषणा घटना घट जाने के बाद होती है, लेकिन खुफिया विभाग की चेतावनी फाइलों में ही दब कर रह जाती है।
सरकार किसी की हो कुर्सी पर बैठे 'खास और फुटपाथ और लोकल ट्रेन में धक्के खाती 'आम जनता के बीच एक बहुत बड़ी खार्इ है, जिसमें बम ब्लास्ट और ट्रेन एक्सीडेंट से मरने वालों की कीमत चंद रूपयों की है। सरकार कीमत अदा करती है और भविष्य में ऐसे हादसों के लिए फिर से फंड का इंतजाम कर लेती है। सवा सौ करोड़ की जनता के देष में 10-20 लोगों की जान की कीमत भला हो भी क्या  सकती है?
देष में लोगों के कीमत निर्धारण के पहले महत्व का निर्धारण करना होगा, एक आम और खास दोनों देष में समान महत्व के है और उनकी सुरक्षा सर्वोपरि है। सुरक्षा के हवार्इ किले बनाने से अच्छा होगा कि हम अपनी आधारभूत संरचना को ठीक करें। और आतंकवाद की रंग-बिरंगी परिभाषा गढ़ने के बजाय सीधे षब्दों में यह सुनिषिचत करे कि देष के प्रति बुरा सोचना ही आतंकवाद है, चाहे ऐसा सोचनेवाला किसी भी रंग या किसी भी मजहब का हो।
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अन्तर्राष्ट्रीय सूचना प्रवाह के बदलते आयाम


विष्व में सभ्यता के आदि चरण से ही संसाधनों पर प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ रही है। इतिहास के पन्नों में कभी हथियार तो कभी व्यापार वो माध्यम बने जो किसी भी देष को ‘संपन्न’ व ‘विपन्न’ से संबोधित करते रहे है।
    पर बदलते वैष्विक परिदृष्य ने संपन्नता और विपन्नता के पैमाने बदल दिए है, आज सूचना की षक्ति हथियारों से कहीं ज़्यादा घातक व असरदार है, वहीं सूचना की विपन्नता किसी भी देष के लिए सबसे बड़ी कमज़ोरी है। पर प्रष्न है कि क्या अन्तर्राष्ट्रीय धरातल में सूचना की प्रकृति हमेषा एक सी रहती है? क्या हमारे लिए उपयोगी सूचनाएं अन्य देषों के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी? सामान्य तौर पर ऐसा नही होता है क्योंकि सूचनाओं की महत्ता राष्ट्र दर राष्ट्र बदलती रही है, उदाहरणस्वरूप देखें तो अभी हाल में भारत के केरल में दो मछुआरों की हत्या के आरोपी दो इटली के नौसैनिकों को भारतीय सरकार ने दोषी घोषित किया पर वही आरोपियों को इटली की मीडिया ने हीरो की तरह पेष किया।
उन्हे एक सच्चे इटालियन सैनिक और देषभक्त का दर्जा दिया गया, जबकि सीधे तौर पर वे भारत सरकार के दोषी है।
    वर्तमान कमप्यूटर और इंटरनेट के युग में सूचनाओं की गति प्रकाष की गति से भी तीव्र हो गयी है, आज पलक झपकते हमारे पास समस्त सूचनाएं उपलब्ध है, पर क्या ये सभी सूचनाएं सत्य पर आधारित है या किसी खास उद्येष्य से बनाए गए है? वैष्वीकरण के इस युग में इंटरनेट के बिना दुनिया की कल्पना नही की जा सकती और आंकड़ें बताते है कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं में 64 प्रतिषत अमेरिका एवं 24 प्रतिषत इंग्लैंड की कंपनियों का बोलबाला है, अतः स्पष्ट है कि सूचना के निर्माण व प्रसार में भी इन्ही का प्रभुत्व है।
    विकसित व विकासषील देषों के बीच आज यही षक्ति एक विभाजनकारी रेखा बन रही है, और विकसित राष्ट्रों के द्वारा प्रसारित की गई सूचना अन्य देषों के पास उसी स्वरूप में पहुंच जाए इसकी कोई गारंटी नही है। जैसे ‘डिस्कवरी’ व ‘नेषनल ज्योग्रफिक’ जैसे विज्ञान आधारित चैनलों का प्रसारण इन्हीं देषों के द्वारा किया जाता है और निष्चयतः इन देषों की कंपनियां ही इन चैनलों के लिए सबसे बड़े विज्ञापन दाता है, इस दिषा में इनके हितों का संवर्द्धन करना इन चैनलों का लक्ष्य होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा कार्यक्रमों की रूपरेखा भी प्रभावित होती है, कहीं न कहीं दर्षकों के मन में विकसित राष्ट्र के प्रति सम्मान व अन्य पिछड़े देषों के प्रति घृणा की भावना का जन्म होता है। अभी हाल के वर्षों तक भारत की छवि अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर सपेरों व जादू-टोना करने वाले लोगों की थी। वहीं अमेरिका व अन्य पष्चिमी देषों की छवि हमेषा एक सभ्य व उच्च मानसिकता वालों के रूप में दर्षाया जाता रहा है, जबकि पष्चिम के विकसित देषों में भारतीय इंजीनियर, डाॅक्टर व अन्य पेषेवर लोग इनके अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार है, जिसकी कही भी चर्चा नही होती। वैष्विक बाजार में अमेरिका एवं पष्चिमी देषों की सर्वोच्चता इसी सूचना के प्रसार से संभव है कि पष्चिमी देषों की कार्यसंस्कृति अन्य देषों की तुलना में कही बेहतर है।
    भूमंडलीकरण के इस युग में आतंकवाद एक वैष्विक समस्या है, लेकिन आतंकवाद के मुद्दे पर सभी देषों की राय अलग अलग है, न्यूयार्क में 9-11 की घटना की तस्वीरें अमेरिकी मीडिया के द्वारा काफी संषोधित रूप में सामने आया, क्योंकि ये घटना न केवल अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दे रही थी, बल्कि इसके प्रभुत्व के भविष्य पर भी प्रष्न चिन्ह लगा रही थे। इस स्थिति में यह आवष्यक था कि विष्व में ये संदेष कतई ना जाए कि अमेरिका भी अन्य देषों की तरह आतंकवाद के सामने घुटने टेक रहा है। आतंकवाद से लड़ने की प्रतिबद्धता को दर्षाने के लिए अमेरिका ने इराक, सीरिया और अफगानिस्तान जैसे देषों के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर रहा है ताकि ये संदेष प्रसारित हो कि अमेरिका ही एकमात्र मानवाधिकार का रक्षक है।
    वर्तमान परिदृष्य में सूचनाओं का प्रवाह विकसित देषों से विकासषील देषों की ओर हो रहा है, सूचनाएं की प्रवृति भी वैसी है कि हर स्थिति में विकसित देषों का ही हित सधे, सूचनाओं का प्रवाह एकपक्षीय हो रहा है, जहां विकासषील देष केवल सूचना संग्राहक की भूमिका में है। वो केवल सूचनाओं को ग्रहण कर सकते है, उसकी विष्वसनीयता पर कोई प्रष्न चिंह नही लगा सकते क्योंकि वैष्विक परिदृष्य में उनकी बातों का कोई अस्तित्व नही है। उदाहणस्वरूप हम देखे तो तिब्बत के लोग कई वर्षों से अलग देष व चीन के प्रभुत्व से छुटकारे की मांग कर रहे है, लेकिन उनकी आवाज़ या तो चीन के तानाषाही सरकार के आगे खो जाती है या फिर वैष्विक समर्थन के अभाव में दम तोड़ देती है। तिब्बत के लोगों का न तो पष्चिमी विकसित देषों का समर्थन प्राप्त है और ना ही वे स्वयं में कोई बड़ी ताकत के रूप में है।
    सोषल मीडिया के इस दौर में गूगल और इन्साइक्लोपीडिया की परिभाषाओं को ही सत्य और विष्वसनीय माना जा रहा है, सूचनाओं के दृष्टिकोण में न केवल वे समृद्ध है, बल्कि तकनीकी के मामलों में भी वे सबसे आगे है इस संदर्भ में लोगों की जिज्ञासा ऐसी ही कंपनियों पर आश्रित होती जा रही है। अब वे जो भी सूचनाएं प्रदान करे लोग उसे ही सत्य मानने लगते है। अगर हम सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो पाएंगे कि भारत की धार्मिक मान्यताएं व ऐतिहासिक षब्दावली यहां के लोगों की मान्यताओं से कही अलग है, परंतु भारत से दूर बैठा कोई व्यक्ति अगर यहां के ऐतिहासिक व पौराणिक महत्व को समझना चाहता है तो वो वही समझेगा जो उसे इंटरनेट में गूगल व एन्साइक्लोपीडिया उपलब्ध कराएगी। अभी कुछ दिनों पूर्व बाबा रामदेव एवं ‘सेंटर फोर इन्वायरोमेंट एंड साइंस’ की निदेषक सुनीता नारायण ने अपने षोध से कोका कोला जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद को स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से प्रतिकूल बताया, जिससे कि कंपनी का व्यापार भारत में काफी प्रभावित हुआ, लेकिन कंपनी ने अपने पक्ष को मजबूती से प्रस्तुत करते हुए अपने उत्पादों को विष्व बाजार में क्लीन चिट दिलवा दी और ऐसे संस्थानों के षोध को ही कठघरे में ला खड़ा कर दिया। कहने का अर्थ यही है कि सूचना की सत्यता से कही महत्वपूर्ण सूचना के प्रस्तुतीकरण पर निर्भर करता है भले ही सूचना में तनिक भी सच्चाई न हो लेकिन वो ही सर्वग्राह्य समझे जाएंगे। भारत की जनता बाॅलीवुड के फिल्मों के नायकों एवं क्रिकेट खिलाडि़यों को एक भगवान की तरह मानते है, तो उनके द्वारा कही गई बातों (भले ही वो किसी उत्पाद का विज्ञापन ही क्यों न हो ) के प्रति आस्था किसी भी अन्य माध्यमों की तुलना में कही अधिक होती है, कोका कोला कंपनी ने भी अपनी बातों को ऐसे ही सेलेब्रेटी के सहारे लोगों के समक्ष रखा जो कि सफल भी रहा। 
कहने का तात्पर्य यह है कि पष्चिमी देषों की नीतियां व उत्पाद हमेषा ऐसे वातावरण का निर्माण करते है ताकि इनका हमेषा पोषण होते रहे, इसके लिए चाहे उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकाना पड़े। अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर जहां एक ओर सोषल मीडिया को लोगों की आवाज़ बतायी जाती है और सूचना को एक मानवीय अधिकार बताया जाता है, वहीं दूसरी ओर ऐसे माध्यमों को कई बहानों से रोका भी जा रहा है सूचना की स्वीकार्यता पष्चिमी देषों के मुहर पर आश्रित होती जा रही है।
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