Friday, September 11, 2015

"जे जोते से बाची"



किसानों की आत्महत्या अब समाचार पत्रों में एक रूटीन ख़बर के जैसी छपती है। जब भी कोई किसान अपने आपको बलिदान कर देता है, उसके बाद कुछ वैचारिक विमर्श के बाद फिर से किसी नए किसान के इंतज़ार में हमारा समाज खड़ा रहता है।
किसान शब्द ही हमारे समाज में एक सहानुभूति का पर्याय बन चुका है।लोग समझते है की अनाज उपजाना देहातियों और अनपढ़ों का ही काम है। प्याज़ के दाम थोड़े ऊपर क्या हुए, पुरे देश की हाई प्रोफाइल जनता जमाखोरी, किसानों की बदमाशी, सरकार की लापरवाही ना जैसे कैसे कैसे विद्वत वाक्यों से स्वयं को फेसबुक में अपडेट कर विद्वान समझने लगे, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ इन कथित बुद्धिजीवियों को प्याज़ की खेती के बारे में तनिक भी पता नहीं होगा। प्याज़ उपजने वाले किसानों की चुनातियां और समस्या तो भूल ही जाइये।
आज का भारत युवा भारत है, स्किल्ड इंडिया और डिजिटल इंडिया वाला भारत है, जाहिर है इस सफ़ेद कॉलर वाले जॉब की संभावनाओं वाले देश में शायद ही कोई बाप अपने बेटों को खेत में हाथ पाँव गंदे करने के लिए भेजना चाहेगा। लेकिन अपनी माटी में स्वाभिमान के साथ काम करने के बजाय दूसरों की ऑफिस में जी हुज़ूरी करने में अपनी शान समझेगा।
हमारा सभ्य (कथित) समाज बेरोजगारी के लिए सरकार को कोसेगा, मंहगाई के लिए सरकार को गाली देगा, बेरोजगारी के लिए भी सरकार को ही दोष देगा, अब फ़र्ज़ कीजिये की सरकार सबको इनजीनियर और आई टी प्रोफेशनल बना के नौकरी दे दे तो अनाज कौन उपजाएगा? क्या कोई बाहर से आकर हमारे खेतों में अनाज
उपजा जाएगा।
आज जो सामाजिक संरचना देख रहे है, उसमे अमीर किसान भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेजता है, 10 -15साल बाहर रहने के बाद वो शहर में ही बस जाता है, फिर उसके बच्चे अपने गाँव ना जाकर अपने grand paa और grand mom के घर जाते है। आज यहीं स्थिति हर परिवार की हो गयी है। हम खाना जानते है उपजाना नहीं और जानना भी नहीं चाहते। बच्चे खेतों की धूल मिटटी में खेल कर बड़े नहीं हो रहे बल्कि स्मार्ट फ़ोन में गेम खेल कर स्वयं को स्मार्ट होने का दम्भ रच रहे है।
हम भारत से इंडिया होने की राह पर है। और यही सफ़र भारत के हरेक समस्या की जड़ है। हमारे बच्चे दवाइयों और डॉक्टरों की बदौलत बढ़ रहे है। पांच साल की उम्र में चश्मा, 10 साल में दांत ख़राब, 15 तक में शुगर और जवानी आने से पहले ही बुढ़ापे के सारे लक्षण। हो भी क्यों नहीं हम शहर के जो है, हम कोई देहाती अनपढ़ किसान तो नहीं जो मोटा खा कर भी स्वस्थ रहता है।
मेरे आलेख के आमुख से विषयांतर होने का उद्देश्य भी इसी नतीजे पर पहुंचना था। दरअसल भारत के किसान मर रहे है क्योंकि भारत का शिक्षित वर्ग खेती नहीं करता। एक अनपढ़ अंग्रेजी में लिखे पैकेट के अमेरिकी बीज खेतों में डालता है, अधिक उत्पादन की आस में अधिक रासायनिक खाद भी। मौसम साथ नहीं देता, उत्पादन शून्य होता है, महाजन सर पर होता है और हमारे किसान स्वाभिमानी, वो किसी का ओलाहना सुनने के बजाय मरना पसंद करते है। हमारा व्यवसायी वर्ग स्वाभिमानी नहीं होता अगर होता तो विजय माल्या और सुब्रत राय जैसे लोग कब के फ़ाँसी लगा लिए होते।
मुझे लगता है की देश में 16 लाख किसानों की हत्या (वैचारिक शब्दावली में आत्महत्या) के लिए देश का यहीं संभ्रांत और शिक्षित वर्ग ज़िम्मेदार है। दिवंगत रामदयाल मुंडा का कथन था " जे नाची से बाची" आज उनकी वाणी इसी सन्दर्भ में याद आ रही है, "जे जोते से बाची"