Sunday, April 24, 2016

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...



मीडिया सब्जेक्ट हमेशा मौसम के अनुसार बदलता रहता है। ठीक उसी तरह जैसे एक ठेलेवाला आम के मौसम में आम और केले के मौसम में केले बेचकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में रहता है।

पूरे देश में गरमी अपने पूरे उफान पर है, पारा अर्द्धशतकीय पारी खेलने को बेताब है। इस मौसम में देश में पानी की समस्या एक समाचार भी है और विकराल समस्या भी। पानी बचाने के संदेश भी ठीक 15 अगस्त के एक हफ्ते पहले बजने वाले देशभक्ति गानों के जैसे ही बज रहे है। हर खबरिया चैनल पानी बचाने के संदेशों को अपना नैतिक कर्तव्य मानकर स्टोरी पे स्टोरी किए जा रहा है, पारा गर्म है और मुद्दा भावनात्मक। एक मध्यम वर्गीय परिवार का पानी को लेकर सरकारी टैंकरों के सामने की जद्दोजहद की फुटेज निश्चित ही टीआरपी की गारंटी है। लेकिन क्या ये मौसम के अनुरूप फल बेचने वाले बिजनेस स्ट्रेटेजी के अलावा भी कुछ है? क्या पानी की समस्या केवल मार्च-अप्रैल के महीनों की ही समस्या है? या इस समस्या की पृष्ठभूमि में भी जाने की जरूरत है, क्या उन कारणों को चिहिन्त करने की जरूरत नहीं जो प्रकृति और मानव के मध्य के संतुलन को अपने स्वार्थों के लिए हर रोज बलि देने को तैयार है।

एक सर्वे के मुताबिक पुरे विश्व में एंटीबायोटिक खाने के मामले में भारत सबसे आगे है। उदाहरण लेख के विषय से इत्तर है, लेकिन संबंध प्रत्यक्ष है। पानी की समस्या हमारे मॉडर्न बनने की गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और अपने संस्कृति से विमुख होने की परिणति के अलावे कुछ भी नहीं है। साल दर साल पारा बढ़ता गया और हम इस समस्या का जड़ से इलाज की जगह अपने घरों को एयरकंडीशनर के एंटीबायोटिक से इसका इलाज ढूंढ रहे है। गाडि़यों से लेकर बाथरूम सब के सब सेन्ट्रलाईज्ड एसी के ओवर डोज़ से ठंढा हो रहा है और वातावरण गर्म। कुँएं और तालाबों को हम अपने छोटे से मकान में नहीं रख सकते, तो मशीनों ने रास्ता निकाला डीप बोरिंग का, अपने शुरूआती दौर में इस तकनीक से जमीन के 50 फुट की छिद्र ने भरपूर पानी देना शुरू किया, वक्त के साथ-साथ गहराई बढ़ी गई और आज हम धरती को हजार फुट छेद कर पानी खींचने को तैयार है। ऐसे कई उदाहरण है, जिसकी दिशा आज की समस्याओं की ओर ले जाता है।

हमारा आधुनिक समाज आधुनिकता के दंभ पर प्रकृति के नियमों और संतुलन को चुनौतियां दे रहा है। बाजारवाद के दौर में इस पृथ्वी का सदस्य ( उपभोक्ता कहे तो बेहतर ) अपनी हर जरूरतों को शॉपिंग मॉल में ढूंढता है, उसे हर कुछ तुरत चाहिए। इन्हीं डिमांड को पूरा करने की होड़ में अब ऑनलाईन शॉपिंग कम्पनियां भी सबसे पहले डिलीवरी करने की गारंटी दे रहे है। अब इस गर्मी में ठंढी हवा चाहिए, आपके लिए एसी है, पीने का शुद्ध पानी चाहिए बोतलबंद मिनिरल वाटर है, सड़कों में स्मूथ ड्राईविंग चाहिए, कंक्रीटेड स्मूथ सड़के है, यहाँ तक की सबसे शुद्ध हवा चाहिए, तो बोतलों में बंद सबसे शुद्ध हवा भी बाजार में उपलब्ध है, बस ज़ेब में पैसे होने चाहिए हाँ आप चाहे तो कैश ऑन डिलीवरी भी कर सकते है। बस शर्त यही है, कि कीमत हर हाल में चुकानी पड़ेगी।

लेकिन इन तमाम सुविधाओं की कीमत बस चंद पैसे ही नहीं है, जिसे हम और आप खर्च कर प्राप्त कर रहे है। ये तमाम सुविधाएं प्रकृति के दोहन की कीमत चुकाकर हमें मिल रही है। आधुनिक सुविधाएं और प्रकृति का दोहन समानुपाती है। हम बिना सोचे समझे अपनी विलासिता के लिए हर कुछ करने को तैयार है। लेकिन इन सुविधाओं की असली कीमत कोई भी खबरियां चैनल दिखाने को तैयार नहीं है, उनके स्टोरी की थीम और सो कॉल्ड पुनीत उद्देश्यों में स्वयं विरोधाभास है। ये सब जानते है, (जैसा कि हमें बताया गया) कि एसी एक ऐसा उपकरण है, जो कमरे को ठंढा करता है, लेकिन किसी कंपनी या चैनल ने ये बताने की गुस्ताखी नही की एसी कमरे के बाहर के वातावरण को कई गुना गर्म करता है, जो कि शहरों के बढ़ते पारे का एक प्रमुख कारण है।

क्रिकेट के बहाने पानी की बर्बादी को लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले और दिन रात इस खबर की बंसी बजाने वाले चैनल कभी लाखों अर्पाटमेंट में डीप बोरिंग से पानी के अत्याधिक दोहन और तालाबों को सुखाकर उस पर शॉपिंग मॉल बनाने वाले बिल्डरों के खिलाफ कभी जनहित याचिका दायर नहीं करते, क्योंकि उन्हें मालूम है, कि उनके आगे ये टिक नहीं पाएंगे और विज्ञापनों के रूप में रिश्वत भी बंद हो जाएगी।

दरअसल पर्यावरण संरक्षण, ग्लोबल वार्मिंग, पानी की समस्या जैसे मुद्दों पर बहस बाजारवाद के समीकरणों को ध्यान में रख कर किया जाता है। जिनकी नियत में तनिक भी ईमानदारी नहीं दीखती। बड़े-बड़े वादे और संकल्प बस मीडिया अटेंशन का एक हिस्सा है, जो स्टोरी के लिए बेहतर कंटेंट और पर्यावरण के स्वघोषित हितैषियों के लिए एक रूटीन जॉब के अलावे कुछ भी नहीं। पर्यावरण संरक्षण और आधुनिक बाजारवाद दोनों विपरीत दिशाएं है, हम दोनों के बीच समन्वय की कल्पना ही नहीं कर सकते। पर्यावरण संरक्षण का सीधा संबंध प्रकृति के साथ समन्वय बनाने से जुड़ा हुआ है और ये तभी संभव हो सकता है, जब हम अपनी जीवनशैली और आदतों में व्यापक परिवर्तन लाएंगे।

हमनें कमरे को ठंढा करने का हर उपाय ढूंढ लिया, लेकिन वातावरण को ठंढा करनेवाले कारकों पहाड़ और पेड़ों को काटकर समतल बना दिया। गाडि़यां बढ़ी तो कंक्रीट से हर उन रास्तों और इलाकों को ढक दिया, जिनसे होकर पानी जमीन के अन्दर प्रवेश कर वाटर लेबल को बनाए रखती थी। पानी का स्तर घटा तो हमने मशीनों की शक्ति बढ़ाकर और गहराई में पानी ढूंढने लगे और नतीजा सब के सामने है। जो नदियां कभी पीने के पानी का मुख्य स्रोत हुआ करती थी, उसमें शहर की सिविल सोसाईटी ने सिवरेज का गंदा पानी बहाकर उसे पूरी तरह नाले में बदल कर रख दिया और नदियों को साफ करने के नाम पर कई लोगों की दुकानदारी चल पड़ी। नदियों की धार कम हुई तो उसकी कैचमेंट एरिया भी कम हुई, जिससे भू-माफियाओं का धंधा फलने फूलने लगा। अब इन सभी विरोधाभासों में पानी बचाओं और पर्यावरण बचाओं जैसे नारो की बात करना बेमानी है।

बदलते पर्यावरण और रोज खड़ी होती समस्याओं का हल सोशल मीडिया और सेमिनारों में ढूंढने के स्थान पर हमें व्यवहारिकता के धरातल पर व्यापक बदलाव करने की जरूरत है। आज जिस प्रकार पानी से लेकर हवा तक के लिए जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उपर आश्रित होते जा रहे है, अगर स्थिति यहीं रहीं तो वो दिन दूर नहीं जब हम बोरियों में पैसे लेकर इन कंपनियों के सामने एक बोतल पानी के लिए गिड़गिड़ाते नज़र आएंगे। फैसला आपका है इस सुंदर प्रकृति के साथ चलने का या उपभोक्ता बनकर बाजार में जीने के लिए संघर्ष करने का।