संक्रमण के दौर से गुजर रहा हमारा समाज आधुनिकता एवं पारंपरिकता के द्वंद में फंसा सा दीख रहा है, एक तरफ हमारी सांस्कृतिक विरासत है तो दूसरी ओर वैचारिक स्वतंत्रता एवं समाज के खुलेपन की होड़ में नैतिकता हाशिए पर है। रिश्तों की गरिमा तार तार हो रही है, समाज में दरिंदगी ऐसी फैल रही है कि मासूम बच्चे भी समाज के इस वहशीपन से अछुते नही है।
सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ होने का दंभ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमने तत्र देवता’ का दर्शन प्रस्तुत करने वाला भारत आज नैतिकता में बड़ा कमजोर सा प्रतीत हो रहा है। कड़े कानून की मांग और प्रशासनिक दोषारोपण से ऐसी समस्याओं का समाधान हो ऐसा संभव नही है। नैतिक मूल्यों के पतन के लिए सरकार या प्रशासन प्रत्यक्ष् ा रूप से जिम्मेवार नही हो सकता, अगर 2-4 दुष्कर्मियों को फांसी के तख्ते पर लटका भी दिया जाए तो क्या ऐसी घटनाओं पर अंकुश लग जाएगा? हमारे पास कानून की एक लंबी श्रृंखला है, सैकड़ो दोषी सज़ा पाते है फिर भी ऐसी घटनाएं दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है।
बड़े शहरों से चलकर अब अर्द्धशहरी और ग्रामीण कस्बाई इलाके भी सांस्कृतिक प्रदूषण की चपेट में है। परिवार और समाज में एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ रही है। चाचा, मामा, भैया, दीदी, भाभी जैसे रिश्ते अब विलुप्त होते जा रहे है, ऐसे रिश्तों की प्रासंगिकता बतलाने वाले दादा दादी, नाना नानी भी वीडियो गेम्स और फेसबुक से रिप्लेस होते जा रहे है। यौनोन्माद के लिए एक पागलपन की मनोवृति का प्रसार हो रहा है, जो नैतिक मूल्यों को भी धराशायी कर रहा है। क्या इस पागलपन को सिर्फ कानून के बना देने से रोका जा सकता है?
दरअसल समाज में फैल रहे ऐसे मनोवृति के लिए हमारे सास्कृतिक मूल्यों से हमारी दूरियां एवं परिवार जैसी उन्नत संस्थाओं का टूटना है, मनुष्य के अन्तर्मन की शुद्धता कभी भी कानून के डंडे से ठीक नही किया जा सकता, किसी व्यक्ति के नैतिकता का ह्रास उसके सामाजीकरण की विफलता का परिणाम है न कि प्रशासनिक विफलता का। लेकिन हां ऐसे घटनाओं के लिए ऐसी कठोर सज़ा भी अवश्य मिलनी चाहिए ताकि इसकी पुनरावृति न हो। भारत जैसे पारंपरिक देश में आधुनिकता एक नयी सोच है, आधुनिकता और उन्मुक्तता के द्वंद में हम अपने पारंपरिक मूल्यों को खोते जा रहे है। हमारे पारंपरिक आदर्श केवल सैद्धांतिक पाठ के रूप में रह गए है, जो केवल दिन विशेष को ही याद किए जाते है।
हम समाज में सेक्स शिक्षा की अनिवार्यता पर जोर देते है, लेकिन नैतिक शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप तक ही सीमित रखते है। क्या इस असंतुलन से हम एक संतुलित समाज की कल्पना कर सकते है? विविध उपायों से सुरक्षित यौन सबंधों को की वकालत करने की शिक्षा और परस्त्री के साथ यौन संबंधों को अनैतिक ठहराने वाले नैतिकता के पाठ में समाज के लिए क्या उचित है इसका निर्धारण तो हमें ही करना होगा। समाज में नैतिक मूल्यों के निर्धारण में परिवार जैसी सामाजिक संस्थाओं को सुदृढ करना होगा।
सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ होने का दंभ और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमने तत्र देवता’ का दर्शन प्रस्तुत करने वाला भारत आज नैतिकता में बड़ा कमजोर सा प्रतीत हो रहा है। कड़े कानून की मांग और प्रशासनिक दोषारोपण से ऐसी समस्याओं का समाधान हो ऐसा संभव नही है। नैतिक मूल्यों के पतन के लिए सरकार या प्रशासन प्रत्यक्ष् ा रूप से जिम्मेवार नही हो सकता, अगर 2-4 दुष्कर्मियों को फांसी के तख्ते पर लटका भी दिया जाए तो क्या ऐसी घटनाओं पर अंकुश लग जाएगा? हमारे पास कानून की एक लंबी श्रृंखला है, सैकड़ो दोषी सज़ा पाते है फिर भी ऐसी घटनाएं दिन प्रति दिन बढ़ती ही जा रही है।
बड़े शहरों से चलकर अब अर्द्धशहरी और ग्रामीण कस्बाई इलाके भी सांस्कृतिक प्रदूषण की चपेट में है। परिवार और समाज में एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ रही है। चाचा, मामा, भैया, दीदी, भाभी जैसे रिश्ते अब विलुप्त होते जा रहे है, ऐसे रिश्तों की प्रासंगिकता बतलाने वाले दादा दादी, नाना नानी भी वीडियो गेम्स और फेसबुक से रिप्लेस होते जा रहे है। यौनोन्माद के लिए एक पागलपन की मनोवृति का प्रसार हो रहा है, जो नैतिक मूल्यों को भी धराशायी कर रहा है। क्या इस पागलपन को सिर्फ कानून के बना देने से रोका जा सकता है?
दरअसल समाज में फैल रहे ऐसे मनोवृति के लिए हमारे सास्कृतिक मूल्यों से हमारी दूरियां एवं परिवार जैसी उन्नत संस्थाओं का टूटना है, मनुष्य के अन्तर्मन की शुद्धता कभी भी कानून के डंडे से ठीक नही किया जा सकता, किसी व्यक्ति के नैतिकता का ह्रास उसके सामाजीकरण की विफलता का परिणाम है न कि प्रशासनिक विफलता का। लेकिन हां ऐसे घटनाओं के लिए ऐसी कठोर सज़ा भी अवश्य मिलनी चाहिए ताकि इसकी पुनरावृति न हो। भारत जैसे पारंपरिक देश में आधुनिकता एक नयी सोच है, आधुनिकता और उन्मुक्तता के द्वंद में हम अपने पारंपरिक मूल्यों को खोते जा रहे है। हमारे पारंपरिक आदर्श केवल सैद्धांतिक पाठ के रूप में रह गए है, जो केवल दिन विशेष को ही याद किए जाते है।
हम समाज में सेक्स शिक्षा की अनिवार्यता पर जोर देते है, लेकिन नैतिक शिक्षा को वैकल्पिक विषय के रूप तक ही सीमित रखते है। क्या इस असंतुलन से हम एक संतुलित समाज की कल्पना कर सकते है? विविध उपायों से सुरक्षित यौन सबंधों को की वकालत करने की शिक्षा और परस्त्री के साथ यौन संबंधों को अनैतिक ठहराने वाले नैतिकता के पाठ में समाज के लिए क्या उचित है इसका निर्धारण तो हमें ही करना होगा। समाज में नैतिक मूल्यों के निर्धारण में परिवार जैसी सामाजिक संस्थाओं को सुदृढ करना होगा।
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