दिल से निकलेगी न मर कर वतन की उल्फ़त...
मेरी मिट्टी से भी खुषबु-ए-वतन आएगी.........
फांसी के तख्तें पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए यह गाते नौजवानों ने अपने जीने के उद्येष्य को परिभाषित कर दिया, अंग्रेजी सरकार इन क्रांतिकारियों के जीने के अधिकार को भले ही छीन लिया हो लेकिन उनके राजनीतिक दर्षन और विचारों को देष के कोने कोने तक फैलने से नही रोक सकी।
महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्ररित होकर असहयोग आंदोलन में अपनी पढ़ाई-लिखाई और अपने घर-बार तक छोड़ कर आने वाले युवाओं ने कभी ये नही सोचा था कि उनके आदर्ष के द्वारा आंदोलन वापस ले लिया जाएगा, इस घटनाक्रम ने इन उत्साही युवकों का अहिंसक आंदोलन के प्रति निष्ठा को तोड़ दिया, अहिंसक आन्दोलनों से ऐसे युवाओं का विष्वास उठने लगा और किसी विकल्प की की तलाष होने लगी।
उहापोह की इस स्थिति में षचीन्द्रनााथ सान्याल की ‘बंदी जीवन’ इन युवाओं के लिए एक पाठ्य पुस्तक के रूप में सामने आयी और अपने ओजपूर्ण आह्वान से सैकड़ो ऐसे युवाओं को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। कांतिकारी दर्षन से प्रभावित युवाओं ने कानपुर के एक सम्मेलन में हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएषन( एच आर ए ) की स्थापना की और अंग्रेजों के विरूद्ध एक घोषित यु़द्ध छेड़ दिया। का्रंतिकारी आन्दोलन के प्रांरंभिक चरण के प्रमुख सैनिकों में भगत सिंह, अषफाकउलाह, रामप्रसाद बिस्मिल एवं राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे युवा षामिल थे, जिनका एकमेव उद्येष्य का्रंतिकारी आन्दोलनों की निरंतरता के लिए हरसंभव तरीके से प्रयास करना था। का्रंतिकारी युवा व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राजनीति के बदले संगठित का्रंतिकारी कार्रवाई में विष्वास करते थे, लेकिन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीषन के खिलाफ प्रदर्षन के दौरान लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठीचार्ज और उसके बाद उनकी मौत ने युवा क्रांतिकारियों को एक बार फिर व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राह पकड़ने पर मजबूर कर दिया। युवा क्रांतिकारियों ने ‘षेर-ए-पंजाब’ के नाम से मषहूर इस महान नेता की हत्या को अपने पौरूष के लिए चुनौती समझा और उसे स्वीकार किया। 17 सितम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रषेखर आज़ाद और राजगुरू ने लाहौर में लालाा जी पर लाठी बरसाने वाले एक पुलिस अधिकारी साॅन्डर्स की हत्या कर दी। हत्या के बाद एच एस आर ए की तरफ से पोस्टर लगाए गए जिसमें लिखा था: ‘ लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देष का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कर्तव्य था, साॅन्डर्स की हत्या पर हमें दुख है पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे है।’
अपनी क्रांतिकारी रणनीतियों में भगत सिंह और उनके साथियों ने जनता को यह समझाने का निणर्य किया कि वे उनके अन्य लड़ाईयों में भी साथ है, और उनकी लड़ाई व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप में लड़ी जाए, सरकार इस समय जनता विषेषकर मज़दूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के मकसद से दो विधेयक ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी, इसके प्रति विरोध जताने के लिए भगत सिंह और बटुकेष्वर दत्त को सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंकने का काम सौंपा गया। बम फेंकने का उद्येष्य किसी को नुकसान पहुंचाना नही बल्कि सत्ता के बहरे कानों में विरोध की आवाज पहुंचाना था। सदन में पर्चे फेंके गए जिसमें लिखा था ‘ बहरे कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए ’
भगत सिंह और बी के दत्त पर मुकदमा चला, बाद में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू एवं अन्य क्रांतिकारियों पर अनेक षडयंत्रों में षामिल होने का मुकदमा चला। युवा क्रांतिकारी अदालत में जो बयान देते वो अगले दिन अखबारों में छपते जिससे पूरे देष में उनका प्रचार होता। अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध, निडर एवं दुस्साहसी ये युवा क्रांतिकारी रोज अदालत में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेष करते, कटघरें में बेडि़यों में जकड़े ‘ मेरा रंग दे बसन्ती चोला और सरफरोषी की तमन्ना अब हमारे दिल में है जैसे गीतों ने पूरे देष को झकझोर दिया, अहिंसक आन्दोलनों में विष्वास रखने वाले भी अब इन क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने लगे, भगत सिंह का नाम हर जुबान पे था, जेल की अमानवीय दषा में सुधार के लिए इन युवाओं का अनषन एवं 72 दिनों तक की भूख हड़ताल ने अंगे्रजी सरकार को हिला कर रख दिया, वहीं पूरे देष से इनके लिए समर्थन के स्वर उठने लगे। एक लंबे मुकदमें के बाद अन्ततः 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गयी, ये खबर ने पूरे देष को स्तब्ध कर दिया, हजारों आंखे बहुत रोई, घरों में चुल्हा नही जला, बच्चे स्कूल नही गए, दूर दराज के गांवों को भी उदासी डस गयी।
अपने जीवन के छोटे से ही अन्तराल में भगत सिंह और उनके साथियों ने देषभक्ति के जज़्बे को ऐसे दर्षाया जो उनकी षहादत के बाद हमेषा के लिए अमर हो गयी, उनकी षहादत ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिषा के साथ एक नयी उर्जा दी। गुलामी से मुक्ति के बाद आज हम एक नये भारत में जी रहे है, जहां प्रत्यक्ष रूप में कोई गोरा दुष्मन तो सामने नही है, लेकिन छिपे हुए न जाने कितने दुष्मन है? भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसे राष्ट्रविरोधी तत्व हमें समय से पीछे धकेल रहा है। देष की आजादी के सिपाहियों के सपने का भारत आज किस रूप में है यह सर्वविदित है। लेकिन क्या हम अपने सुनहरे अतीत और देषभक्तों की षहादत को यूं ही व्यर्थ जाने दे? क्या हम केवल ऐसे तिथियों को केवल एक औपचारिकता मानकर याद करे या उनके आचरण को स्वयं में समाहित कर राष्ट्र आराधन को स्पष्ट करे। भगत सिंह जैसे षहीदों को तस्वीरों और स्मारकों का रूप देकर केवल एक प्रतीकात्मक हीरो बनाने के बदले उनके दर्षन को स्वयं में धारण करे, क्योंकि देष भले ही अंग्रजी राजनीतीक दासता से मुक्त हो गया है, लेकिन सैकड़ो विघटनकारी षक्तियां देष को फिर से गर्त में ले जाने की दिषा में प्रयत्नषील है और ऐसी परिस्थितयों में देष को आज एक नही हजारों भगत सिंह की जरूरत है।
मेरी मिट्टी से भी खुषबु-ए-वतन आएगी.........
फांसी के तख्तें पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए यह गाते नौजवानों ने अपने जीने के उद्येष्य को परिभाषित कर दिया, अंग्रेजी सरकार इन क्रांतिकारियों के जीने के अधिकार को भले ही छीन लिया हो लेकिन उनके राजनीतिक दर्षन और विचारों को देष के कोने कोने तक फैलने से नही रोक सकी।
महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से प्ररित होकर असहयोग आंदोलन में अपनी पढ़ाई-लिखाई और अपने घर-बार तक छोड़ कर आने वाले युवाओं ने कभी ये नही सोचा था कि उनके आदर्ष के द्वारा आंदोलन वापस ले लिया जाएगा, इस घटनाक्रम ने इन उत्साही युवकों का अहिंसक आंदोलन के प्रति निष्ठा को तोड़ दिया, अहिंसक आन्दोलनों से ऐसे युवाओं का विष्वास उठने लगा और किसी विकल्प की की तलाष होने लगी।
उहापोह की इस स्थिति में षचीन्द्रनााथ सान्याल की ‘बंदी जीवन’ इन युवाओं के लिए एक पाठ्य पुस्तक के रूप में सामने आयी और अपने ओजपूर्ण आह्वान से सैकड़ो ऐसे युवाओं को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। कांतिकारी दर्षन से प्रभावित युवाओं ने कानपुर के एक सम्मेलन में हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएषन( एच आर ए ) की स्थापना की और अंग्रेजों के विरूद्ध एक घोषित यु़द्ध छेड़ दिया। का्रंतिकारी आन्दोलन के प्रांरंभिक चरण के प्रमुख सैनिकों में भगत सिंह, अषफाकउलाह, रामप्रसाद बिस्मिल एवं राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे युवा षामिल थे, जिनका एकमेव उद्येष्य का्रंतिकारी आन्दोलनों की निरंतरता के लिए हरसंभव तरीके से प्रयास करना था। का्रंतिकारी युवा व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राजनीति के बदले संगठित का्रंतिकारी कार्रवाई में विष्वास करते थे, लेकिन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीषन के खिलाफ प्रदर्षन के दौरान लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठीचार्ज और उसके बाद उनकी मौत ने युवा क्रांतिकारियों को एक बार फिर व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राह पकड़ने पर मजबूर कर दिया। युवा क्रांतिकारियों ने ‘षेर-ए-पंजाब’ के नाम से मषहूर इस महान नेता की हत्या को अपने पौरूष के लिए चुनौती समझा और उसे स्वीकार किया। 17 सितम्बर 1928 को भगत सिंह, चन्द्रषेखर आज़ाद और राजगुरू ने लाहौर में लालाा जी पर लाठी बरसाने वाले एक पुलिस अधिकारी साॅन्डर्स की हत्या कर दी। हत्या के बाद एच एस आर ए की तरफ से पोस्टर लगाए गए जिसमें लिखा था: ‘ लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देष का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय युवकों का कर्तव्य था, साॅन्डर्स की हत्या पर हमें दुख है पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे है।’
अपनी क्रांतिकारी रणनीतियों में भगत सिंह और उनके साथियों ने जनता को यह समझाने का निणर्य किया कि वे उनके अन्य लड़ाईयों में भी साथ है, और उनकी लड़ाई व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप में लड़ी जाए, सरकार इस समय जनता विषेषकर मज़दूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के मकसद से दो विधेयक ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ लाने की तैयारी में थी, इसके प्रति विरोध जताने के लिए भगत सिंह और बटुकेष्वर दत्त को सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में बम फेंकने का काम सौंपा गया। बम फेंकने का उद्येष्य किसी को नुकसान पहुंचाना नही बल्कि सत्ता के बहरे कानों में विरोध की आवाज पहुंचाना था। सदन में पर्चे फेंके गए जिसमें लिखा था ‘ बहरे कानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए ’
भगत सिंह और बी के दत्त पर मुकदमा चला, बाद में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू एवं अन्य क्रांतिकारियों पर अनेक षडयंत्रों में षामिल होने का मुकदमा चला। युवा क्रांतिकारी अदालत में जो बयान देते वो अगले दिन अखबारों में छपते जिससे पूरे देष में उनका प्रचार होता। अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध, निडर एवं दुस्साहसी ये युवा क्रांतिकारी रोज अदालत में ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए प्रवेष करते, कटघरें में बेडि़यों में जकड़े ‘ मेरा रंग दे बसन्ती चोला और सरफरोषी की तमन्ना अब हमारे दिल में है जैसे गीतों ने पूरे देष को झकझोर दिया, अहिंसक आन्दोलनों में विष्वास रखने वाले भी अब इन क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने लगे, भगत सिंह का नाम हर जुबान पे था, जेल की अमानवीय दषा में सुधार के लिए इन युवाओं का अनषन एवं 72 दिनों तक की भूख हड़ताल ने अंगे्रजी सरकार को हिला कर रख दिया, वहीं पूरे देष से इनके लिए समर्थन के स्वर उठने लगे। एक लंबे मुकदमें के बाद अन्ततः 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा सुनाई गयी, ये खबर ने पूरे देष को स्तब्ध कर दिया, हजारों आंखे बहुत रोई, घरों में चुल्हा नही जला, बच्चे स्कूल नही गए, दूर दराज के गांवों को भी उदासी डस गयी।
अपने जीवन के छोटे से ही अन्तराल में भगत सिंह और उनके साथियों ने देषभक्ति के जज़्बे को ऐसे दर्षाया जो उनकी षहादत के बाद हमेषा के लिए अमर हो गयी, उनकी षहादत ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिषा के साथ एक नयी उर्जा दी। गुलामी से मुक्ति के बाद आज हम एक नये भारत में जी रहे है, जहां प्रत्यक्ष रूप में कोई गोरा दुष्मन तो सामने नही है, लेकिन छिपे हुए न जाने कितने दुष्मन है? भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद जैसे राष्ट्रविरोधी तत्व हमें समय से पीछे धकेल रहा है। देष की आजादी के सिपाहियों के सपने का भारत आज किस रूप में है यह सर्वविदित है। लेकिन क्या हम अपने सुनहरे अतीत और देषभक्तों की षहादत को यूं ही व्यर्थ जाने दे? क्या हम केवल ऐसे तिथियों को केवल एक औपचारिकता मानकर याद करे या उनके आचरण को स्वयं में समाहित कर राष्ट्र आराधन को स्पष्ट करे। भगत सिंह जैसे षहीदों को तस्वीरों और स्मारकों का रूप देकर केवल एक प्रतीकात्मक हीरो बनाने के बदले उनके दर्षन को स्वयं में धारण करे, क्योंकि देष भले ही अंग्रजी राजनीतीक दासता से मुक्त हो गया है, लेकिन सैकड़ो विघटनकारी षक्तियां देष को फिर से गर्त में ले जाने की दिषा में प्रयत्नषील है और ऐसी परिस्थितयों में देष को आज एक नही हजारों भगत सिंह की जरूरत है।
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