हिन्दु मान्यताओं के अनुसार वर्ष का एक विषेष पक्ष को पितरों के लिए समर्पित किया गया है। अर्थात उस विषेष पाक्षिक अन्तराल में पूर्वजों के आत्मा की षांति के लिए विषेष अनुष्ठान संपन्न किए जाते है।
भारत के सरकारी बाबुओं के द्वारा भी मातृभाषा के लिए एक पक्ष निर्धारित किया गया है, जिसे बड़े ही उत्साह से ‘हिन्दी पखवाड़ा’ के रूप में अंग्रेजी माह के सितम्बर के 14 वी तिथि के बाद के पखवाड़े में मनाया जाता है। और इस वर्ष भी हिन्दी का यह ‘पितृपक्ष उत्सव’ उत्सव बड़े ही धुमधाम से मनाया गया। वर्ष के पन्द्रह दिन बड़ी मुष्किल से ये हिन्दी में काम-काज करने को तैयार हुए और स्वयं को हिन्दी प्रेमी के विषेषण से संबोधित करने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए।
स्वयं को अंगेजी के निकट मानने वाले ऐसे केवल सरकारी बाबु ही नही है, बल्कि देष में एक व्यापक समूह है जो स्वयं को हिन्दी के साथ असहज महसुस करता है और अंग्रेजी में बोलना अपना ‘स्टेट्स सिंबल’ मानता है।
गूगल और फेसबुक की दुनिया में भी पितृपक्ष के इस ‘षुभ’ अवसर पर हिन्दी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों का तांता लगा रहा, टूटी फूटी भाषा में हिन्दी को श्रद्धांजलि चढ़ाने वालों की लंबी कतार देखने को मिली और सबो ने तर्पण कर अपनी मातृभाषा के प्रति अगाध प्रेम का प्रदर्षन किया।
हिन्दी के प्रति यह पाक्षिक प्रेम क्या तर्कसंगत है? क्या हिन्दी की लोकप्रियता ऐसे यदा कदा के आयोजनों से संभव है? क्या पन्द्रह दिनों के लिए इसे ‘यूज़’ करने वाले वाकई हिन्दी के प्रति सचमुच चिंतनषील है?
ऐसे ढकोसले बंद होने चाहिए, हिन्दी कि वैज्ञानिकता व लोकप्रियता किसी कार्यक्रम की प्रतीक्षा नही करती, सरकारी कार्यालयों में मात्र पन्द्रह दिनों की अतिथि बनाकर हम अपनी मातृभाषा का कोई सम्मान नही कर रहे, बल्कि इसका तर्पण कर रहे है।
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